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________________ | दशवैकालिक सूत्र - 367 अन्य व्यवहारों में भी अहिंसा का जो विचार जैन धर्म में अत्यंत सूक्ष्म किया हुआ है, उसका निरूपण अपेक्षित था। उसी अपेक्षा की पूर्ति सेज्जभव ने आगे की है। जैसे दैनंदिन वर्तमान आवश्यकताओं से अधिक मात्रा में वस्तुओं का संग्रह करने से अन्य जरूरतमंद लोगों को उनके उपभोग से वंचित रहना पड़े, तो यह भी एक तरह की अहिंसा ही है। उससे दूर रहते हुए, मुनि को अपरिग्रह व्रत का पालन कड़े ढंग से करना चाहिए। शरीरनिर्वाह हेतु कम से कम वस्तुएं ही पास रखना, एक ऊनी वस्त्र , भिक्षापात्र (लकड़ी का), एक रजोहरण, बस। और ये वस्तुएँ भी न खरीदनी चाहिए, न बिना मांगे उठा लेनी चाहिए। बल्कि इन्हें भी भिक्षा रूप में ही प्राप्त करना चाहिए। साथसाथ अन्य व्रतों की भी चर्चा करते हुए इस अध्ययन को महाचार कथा शीर्षक दिया गया है। इन्हीं महाव्रतों में सदा सत्यभाषण का व्रत भी एक है। किन्तु इस वाचिक अहिंसा के संदर्भ में अधिक गहराई एवं विस्तार से समझाने के प्रयोजन से सातवें अध्ययन को 'वाक्यशुद्धि (वक्कसुद्धि) नाम दिया गया है। यहां व्याकरण-दृष्ट्या शुद्धि की बात नहीं है, प्रत्युत आरंभ में ही इशारा दिया गया है कि जो वचन सत्य होते हुए भी कटु हों, किसी के मर्म को चोट पहुंचाने वाले हों, उन्हें हिंसक अतएव अवक्तव्य मानना चाहिए। उसी तरह मृषा(असत्य) से मिश्रित सत्यवचन या सयाने लोगों द्वारा अप्रमाणित (शंकायुक्त) वचन भी नहीं बोलने चाहिए (क्योंकि इनसे सुनने वालों को दिग्भ्रान्ति हो सकती है)। वचन की ऐसी शुद्धि के लिए मन की शुद्धि तथा कषायमुक्त संयत एकाग्र स्थिति भी जरूरी है, ताकि वह हर मौके पर मुनि का सही-सही मार्गदर्शन कर सके। इसी हेतु आचार की प्रणिधि (उस पर पूर्ण एकचित्तता) को लेकर आठवां अध्ययन रचा गया है, परंतु इसमें १-७ ही नहीं, आगे वाले अध्ययन ९ से भी विचारों को लेकर, कुछ सर्वसामान्य विधानों के साथ-साथ समाविष्ट किया गया है। अध्ययन ८ में जो आचार में प्रणिहित होने का उपदेश दिया गया है, उसको "साध्य करने या संभव बनाने के लिए पहले स्वयं को अनुशासन में रखने की आदत साधु को डालनी चाहिए।'' इसी महत्त्वपूर्ण विषय पर चार उद्देशकों (उपविभागों) वाला 'विनय समाधि' नाम से नवा अध्ययन रचा गया है। पहले व दूसरे में समझाया गया है कि मुनि के आचार धर्म का मूल है विनय, वह पुष्ट होगा तभी तना-डालियां --पत्ते परिपुष्ट होकर अंत में मोक्ष रूपी रस चखने को मिलेगा, क्योंकि अनुशासन से ही महाव्रतों का पालन ठीक से होगा, कषायों से मुक्ति मिलेगी तथा गुप्तियों द्वारा तन-मन की रक्षा होगी। अनुशासन शारीरिक भी होता है और मानसिक भी। शारीरिक विनय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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