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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क
मूल उपदेशों को संक्षेप में ग्रथित करने वाले ग्रंथ को मूलसूत्र कहा जाने लगा। यह बात दशवैकालिक सूत्र पर भी लागू होती है । परन्तु सतारा (महाराष्ट्र) से ई.सं. १९४० में प्रकाशित इसके प्रथम संस्करण के प्राक्कथन (पृ. ६) में आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. फरमाते हैं कि 'ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप, इन चार (आत्मा के) मूल गुणों का पोषण करने वाला आगम ग्रंथ' - इस नाते दशवैकालिक सूत्र एक 'मूल' संज्ञक ग्रंथ है। जबकि वाल्टेर शुब्रिंग नामक प्रसिद्ध जर्मन विद्वान का मत है कि अपने मुनि जीवन के आरंभकाल (मूल) में नवभिक्खु हेतु उपयोगी ग्रंथ होने के नाते यह मूलसूत्र है I
अस्तु । अब इस ग्रंथ तथा इसके कर्ता के नामादि का विचार करें। इसकी सबसे प्राचीन पद्यमय प्राकृत टीका आचार्य भद्रबाहु कृत नियुक्ति तथा हरिभद्र सूरिकृत सर्वप्रथम संस्कृत टीका (अनुक्रम से विक्रम की ५वीं व ८वीं शती) एवं परिशिष्ट पर्वन् (सर्ग ५) के अनुसार सेज्जंभव सूरि पहले शय्यंभव भट्ट' नाम के वत्सगोत्रीय ब्राह्मण गृहस्थ थे, वेदों के प्रकांड पंडित एवं चुस्त यज्ञयात्री । किन्तु वही अपना उत्तराधिकारी बनने योग्य है, ऐसा आचार्य सुधर्मा और जम्बूस्वामी के बाद महावीर के तीसरे पट्टधर बने आचार्य प्रभवस्वामी ने उपयोग लगाकर जाना । तब उन्होंने अपने दो शिष्यों को शय्यंभव द्वारा राजगृह में आयोजित यज्ञ में भेजा और आदेश दिया कि वहां तुम्हारा वैदिक पंडितों जैसा सम्मान न हो तो भी, उद्विग्न हुए बिना "अहो क्लृप्तिः । तत्त्वं तु न ज्ञातम् " इतना उस दीक्षित यजमान के कान में कहकर चले आना। जब वैसा हुआ तब शय्यंभव सोच में डूब गया और अपने अध्यापक के पास जाकर सच्चे तत्त्व के बारे में अत्यंत आग्रहपूर्वक पूछा। उन्होंने पहले वेद को और फिर आर्हत धर्म को तत्त्व बताया। तब सारी यज्ञ सामग्री उन्हें सौंपकर शय्यंभव चल पड़ा प्रभव स्वामी जी की खोज में और अनुनय करके उनके पास प्रव्रज्या ग्रहण की। लगातार स्वाध्याय करके वे चतुर्दशपूर्वी बन गए. और गुरु के पश्चात् चौथे पट्टधर बने ।
परन्तु जिस वक्त उन्होंने घर छोड़ा था उस समय उनकी पत्नी का पैर भारी हो चला था। लोगों के पूछने पर उन्होंने कहा था- "अंदर थोड़ा कुछ (मणग) है"। इसी कारण उनके पुत्र का नाम मनक रखा गया । ७-८ वर्ष का होने पर वह अपने पिता के बारे में पूछने लगा । उन्होंने श्वेतपट की दीक्षा ले ली थी- यह जानकर वह पिता की खोज में निकल पड़ा। जब चम्पानगरी में भेंट हुई तो पिता ने पुत्र को तो पहचान लिया, पर स्वयं को उसके पिता का घनिष्ठ मित्र बताकर अपने शिष्य के रूप में रख लिया । शीघ्र ही ज्ञानातिशय से उन्होंने जाना कि मनक की आयु केवल छः मास शेष है। इस स्वल्पकाल में विशाल सागर समान द्वादश अंगों तथा १४ पूर्वो का अध्ययन कर
1. किन्तु शुब्रिंग महोदय के मत से 'सेज्जंभव' संस्कृत स्वायंभव (स्वयंभू) का प्राकृत रूप है।
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