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दशवैकालिक सूत्र
डॉ. यशोधरा वाधवाणी शाह
आचार्य शय्यंभवसूरि द्वारा अपने नवदीक्षित अल्पायुष्क लघुशिष्य के लिए दशवैकालिक सूत्र का निर्यूहण किया गया था। दशवैकालिक के दश अध्ययनों में श्रमणाचार की आवश्यक जानने योग्य बातों का सुन्दर संयोजन है । दशवैकालिक के महत्त्व का आकलन इसी से किया जा सकता है कि अब साध्वाचार में दीक्षित करते समय आचारांग के स्थान पर दशवैकालिक सूत्र के पाठ का उपयोग किया जाता है तथा नवदीक्षित श्रमण-श्रमणी को प्रतिक्रमण आदि के पश्चात् सर्वप्रथम दशवैकालिक पढाया/ स्मरण कराया जाता है। डेक्कन कॉलेज, पुणे की विदुषी डॉ. यशोधरा जी ने इस सूत्र पर समीक्षात्मक लेख प्रस्तुत किया है। सम्पादक
दसवेयालिय- (या क्वचित् दसकालिय ) सुत्त इस प्राकृत नाम से प्रसिद्ध इस जैन आगम का कर्ता सिजंभव या सेज्जंभव सूरि को बताया जाता है और इसे अनंगश्रुत का भाग माना जाता है।
दिगंबर परंपरा के अनुसार, भगवान महावीर की कैवल्यप्राप्ति के बाद तीन अनुबद्ध केवली और पाँच श्रुतकेवली हुए हैं, जिनमें से अंतिम श्रुतकेवली थे आचार्य भद्रबाहु, जिन तक १२ अंगों वाला अंगश्रुत आगम अपने मूल रूप में जारी रहा था । तत्पश्चात् उत्तरोत्तर धारणाशक्ति क्षीण होती जाने से तथा पुस्तकारूढ करने की परिपाटी अभी रूढ न होने से अंगश्रुत क्रमश: विलुप्त होता गया । परंतु परंपरा को अविछिन्न बनाए रखने हेतु बाद के मुनियों ने / गणधरों ने ग्रंथरचना जारी रखी, जो अनंगश्रुत कहलाई। इसके 'सामायिक' आदि चौदह भेदों में से दो नाम ही पहले संस्कृत सूत्रग्रंथ तत्त्वार्थसूत्र पर रची गई अपनी सर्वार्थसिद्धि नामक वृत्ति में आचार्य पूज्यपाद ने निर्दिष्ट किए हैं और वे हैं उत्तराध्ययन तथा दशवैकालिक ।
संभवत: यह केवल संयोग की बात न होगी कि दिगंबर परंपरा के चौदह अनंगश्रुत ग्रंथों में से उपर्युक्त दो ही हैं जो श्वेताम्बरों के 'अंगबाह्य' श्रुत में भी महत्त्व का स्थान रखते हैं । ई. सन् ५०३ के आसपास रचे गए नन्दी सूत्र में प्राप्त वर्गीकरण के अनुसार अंगबाह्य श्वेताम्बर श्रुतग्रंथों में एक प्रकार था 'आवश्यक' और दूसरा 'तद्व्यतिरिक्त'। उस दूसरे के उपप्रकार थे कालिक (यानी कालविशेष में पढ़ने योग्य) एवं उत्कालिक (दिन या रात के किसी भी प्रहर में स्वाध्याय योग्य) तथा इनमें सर्वप्रथम उल्लेख था दशवैकालिक का । किन्तु आगे चलकर आगमों का वर्गीकरण कुछ बदल गया और प्रस्तुत ग्रंथ (दशवैकालिक सूत्र ) को चार मूलसूत्रों के बीच तीसरा स्थान मिला।
'मूलसूत्र' यह नाम सर्वप्रथम आवश्यक चूर्णि ने प्रयुक्त किया था, उस ग्रंथ के लिए, जिसकी वह एक टीका थी। बाद में भगवान महावीर के
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