SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययन सूत्र 327 इच्छा हु आगाससमा अणंतिया।।9.48 ।। इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं। कामे पत्थेमाणा अकामा जंति दुग्गइं।।9.53 ।। कामभोग की लालसा में लगे रहने से मनुष्य बिना भोग भोगे एक दिन दुर्गति में चला जाता है। अहे वयइ कोहेणं माणेणं अहमा गई। माया गइपडिग्घाओ, लोभाओ दुहओ भयं । 19.54।। जो मनुष्य क्रोध करता है उसकी आत्मा नीचे गिरती है। मान से अधम गति को प्राप्त करता है। माया से सद्गति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। इस लोक मे, परलोक में लोभ से भय-कष्ट होता है। 4. धर्म का मंगल (हरिएसिज्ज-बारहवाँ अध्ययन) इस अध्ययन में हरिकेशी मुनि के ऐतिहासिक प्रसंग से जाति, कुल आदि को गौण रख कर आत्मकल्याण में धर्म की प्रधानता निर्दिष्ट है तथा भावयज्ञ का कल्याणकारी विधान बताया गया है। श्वपाक-चाण्डाल कुल में जन्मे हरिकेशी मुनि की ऐसी अद्भुत ऋद्धि और महिमा देखने को मिलती है, जो बहुत दुर्लभ है। इस अध्ययन में ब्राह्मणों के जातिमद को निरर्थक और अज्ञान का भण्डार बताया गया है। सच्चा ब्राह्मण तप की ज्योति जलाकर ज्ञान यज्ञ करता है। आत्मा की शुद्धि तप और त्याग में होती है। चाण्डाल हो या शूद्र, जो तप का आचरण करता है, वह धर्म का अधिकारी है। धर्म का मंगल द्वार किसी भी जाति के लिए बन्द नहीं है। शूद्ध आत्मा पूज्य है। सक्खं खु दीसइ तवो विसेसो, नदीसई जाइविसेस कोइ।।12.37 || तप-चारित्र की विशेषता तो प्रत्यक्ष दिखलाई देती है, किन्तु जाति की तो कोई विशेषता नजर नहीं आती। धम्मे हरए बंभे सन्ति तित्थे. अणाविले अत्तपसन्नलेसे। जहिंसि णाओ विमलो विसुद्धो, सुसीइओ पजहामि दोस। |12.46 || धर्म मेरा जलाशय है, ब्रह्मचर्य शांति तीर्थ है, आत्मा की प्रसन्न लेश्या मेरा निर्मल घाट है, जहाँ पर आत्मा स्नान कर कर्म मल से मुक्त हो जाता है। आज की मानवता के लिए श्रमण सम्राट् भगवान महावीर का यह संदेश समता और शान्तिवादी समाज के लिए आदर्श पथ-प्रदर्शन है। 5. निष्काम साधना का उपदेश (चित्तसंभूइज्ज-तेरहवाँ अध्ययन) यह अध्ययन मनुष्य को भोगों के दलदल से निकालकर निष्काम साधना का उपदेश देता है। मनुष्य को अपने शुभ या अशुभ कर्मों का फल भोगना पड़ता है। अच्छे कर्म का अच्छा फल होता है तो बुरे कर्म का बुरा फल। धन, शरीर, वैभव, स्त्रियाँ, कामभोग के साधन हैं। मनुष्य को इन सबके प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy