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[326 E AR जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क | 2. शांति का मार्ग संतोष (काविलियं-आठवाँ अध्ययन) ।
कपिल केवली द्वारा लोभ का परित्याग कर संतोष धारण करने का बोध इस अध्ययन में है। यह अध्ययन मानव जीवन में शांति और संतोष का प्रकाश फैलाता है। जिस प्रकार आकाश असीम है उसी तरह तृष्णा भी असीम है। यह अग्नि की भांति सर्वभक्षी है। धन रूपी ईंधन मिलने पर यह अधिक प्रज्वलित होने लगती है। कपिल दो मासा सोना लेने के लिए उतावला था। परन्तु जब उसे राज्य-वैभव भी मिलने लगा तो उसका मन उसके लिए भी लालायित हो गया। अपार धन, स्वर्ण मुद्राओं से भी उसके दो मासा सोने की तृष्णा नहीं बुझी। व्याकुलता से कपिल का चिन्तन मोड़ खाता है और वह राज्य का विचार छोड़कर संयम जीवन अंगीकार कर लेता है।
इइ दुप्पूरए इमे आया।18.16|| लोभवृत्ति को वश में करना दुष्कर है। धन से मन कभी नहीं भरता, इसलिए धन का त्याग करने से मन को शांति मिलती है।
___ जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवढइ।
दो मासकयं कज्ज, कोडीए वि ण णिढ़ियं ।।8.17 ।। जहाँ लाभ है, वहाँ लोभ है। लाभ से लोभ बढ़ता है, दो मासा सोने से बनने वाला काम करोड़ों से पूरा नहीं हुआ। लाभ से लोभ निरन्तर बढ़ता है, दो मासा सोने से संतुष्ट होने वाला करोड़ों से भी संतुष्ट नहीं हुआ।
आठवाँ अध्ययन संदेश देता है कि शांति का मार्ग सम्पत्ति में नहीं संतोष में है। 3. आत्मगवेषी का संदेश (नमिपवज्जा-नवम अध्ययन)
इस अध्ययन में नमिराजर्षि का परम वैराग्यकारी निष्क्रमण और इन्द्र के साथ संवाद है। संसार के धन-वैभव-पुत्र-परिवार को असहाय मानकर मनुष्य को आत्मगवेषी बनने का इस अध्ययन में संदेश है। अपनी आत्मा के अलावा संसार में सब कुछ पराया है। पराया कभी अपना नहीं होता। 'स्व' के दर्शन के लिए 'पर' का त्याग आवश्यक है। जो मानव 'स्व' की खोज करता है, वह स्व को पाता है और स्व को पहचानने पर सभी 'पर' बन्धन लगते हैं। 'पर' बन्धन से मुक्त होने पर व्यक्ति आत्मगवेषी बन जाता है।
सुहं वसामो जीवामो, जेसिं मो नत्थि किंचणं ।।9.14 ।।
मनुष्य में ममता और मेरापन नहीं होने पर चिन्ता, शोक, भय और उद्वेग नहीं होता है। ममता एवं मेरापन शोक के निमित्त हैं। ये दोनों नहीं होने पर कोई चिन्ता नहीं होती है। नमिराजर्षि राज्य वैभव, परिवार और अपने शरीर की ममता त्याग कर एकाकी होकर चलते हैं। उनका संदेश है- “एगो मे सासओ अप्पा, सेसा मे बाहिरा भावा.....।' शाश्वत आत्मा मेरी है बाकी सब बाहरी है। भय, चिन्ता और शोक अन्य से है, आनन्द स्व से है।
सव्वं अप्पे जिए जिय। 19.36 || अपने विकारों को जीत लेने पर सबको जीत लिया जाता है।
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