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________________ | उत्तराध्ययन सूत्र 323 सम्यक् श्रद्धा और संयम में पुरुषार्थ, ये चार बातें अत्यन्त दुर्लभ हैं। सद्धा परमदुल्लहा।।3.9।। धर्म में श्रद्धा प्राप्त होना परम दुर्लभ है। __सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। 13.12|| सरल आत्मा की विशुद्धि होती है और विशुद्ध आत्मा में धर्म ठहरता है व विकसित होता है। इस अध्ययन में मनुष्य भव प्राप्त करके धर्म श्रवण करने, उस पर श्रद्धा रखने एवं फिर तदनुरूप आचरण करने की प्रेरणा की गई है। 3. जागृति का संदेश (असंखयं-चतुर्थ अध्ययन) इस अध्ययन में अग्रांकित उपदेश दिए गए हैं- (१)हर समय जाग्रत रहना चाहिए (२)जीवन की क्षण भंगुरता (३) गया समय फिर नहीं आता (४)पाप कर्म भुगतने पड़ते हैं (५) धन परिवार हमें पाप से मुक्त नहीं करा सकते और (६) प्रमाद गुप्तशत्रु है। प्रमादी नहीं बनने का संदेश देते हुए भगवान ने कहा असंखयं जीविय मा पमायए।।4.1|| अर्थात् जीवन क्षणभंगुर है और चंचल भी है, इसलिए क्षण भर भी प्रमाद मत करो। वित्तेण ताणं न लमे पमत्ते।।4.5 ।। मनुष्य का धन उसकी रक्षा नहीं कर सकता। बुढापे, रोग और मृत्यु की अवस्था में धन उसे बचाने में असमर्थ है।। घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खी व चरेऽपमत्ते। 4.6 || समय भयंकर है, शरीर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता जा रहा है। साधक को अप्रमत्त रहना चाहिए। भारंड पक्षी (पौराणिक सतत सतर्क रहने वाला पक्षी) की तरह विचरण करना चाहिए। जागृति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यक ही नहीं, उपयोगी भी है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए जागृति महत्त्वपूर्ण है। छंदं निरोहण उवेइ मोक्खं ।।4.8 ।। इच्छाओं के रोकने से ही मोक्ष प्राप्त होता है। 4. मृत्यु की कला : निर्भय और अप्रमत्त जीवन (अकाममरणिज्ज-पंचम अध्ययन) जीवन जीना एक कला है, परन्तु मरना उससे भी बड़ी कला है। जिस मनुष्य को मृत्यु की कला आती है उसके लिए जीवन और मृत्यु दोनों ही आनन्द और उल्लासमय बन जाते हैं। इस अध्ययन में मृत्यु बिगाड़ने और सुधारने के कारणों का निर्देश करने के साथ परलोक व जीवन सुधारने का उपदेश दिया गया है। भिक्खाए वा गिहत्थे वा, सुव्वए कम्मई दिवं ।।5.22 || भिक्षु हो चाहे गृहस्थ हो, जो सुव्रती(सदाचारी) है, वह दिव्य गति को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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