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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक उत्तराध्ययन की उच्च आध्यात्मिक दृष्टि का प्रभाव सभी धर्मपरम्पराओं के साथ-साथ सामाजिक जीवन पर भी पड़ा है।
उत्तराध्ययन सूत्र के उपदेशात्मक, धर्मकथात्मक, आचारगत और सैद्धान्तिक अध्ययनों का संक्षिप्त में वर्णन इस प्रकार है(अ) उपदेशात्मक अध्ययन 1. विनय (विणयसुयं-प्रथम अध्ययन)
उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन में विनय का विवेचन किया गया है। विनय से सभी क्लेश और कष्टों के मूल आठ प्रकार के कर्मों का नाश होता
विनयति नाशयति सकलक्लेशकारकमष्टप्रकारं कर्म स विनयः।
प्रस्तुत अध्ययन में विनीत शिष्य के व्यवहार एवं आचरण से विनय के अनेक रूप प्रकट हुए हैं, यथा- गुरु-आज्ञापालन, गुरु की सेवासुश्रूषा, इंगिताकारसंप्रज्ञता, अनुशासनशीलता, मानसिक-वाचिक-कायिक नम्रता, आत्मदमन आदि। विनय को धर्म का मूल तथा दूसरा आभ्यन्तर तप कहा है। इसके अन्तर्गत आत्मा का अनुशासन आवश्यक हैं और शिष्य का गुरु के प्रति भक्तियुक्त व्यवहार और शिष्टता भी अपेक्षित है।
विनय का प्रथम पाठ अहंकार मुक्ति से प्रारंभ होता है। जिसको अहंकार होता है, वह ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता है। गुरुजनों के प्रति छोटे-बड़े सभी के प्रति नम्र, मधुर व्यवहार आवश्यक है।
मनुष्य को अपने जीवन में उन्नति के लिए गुरुजनों के अनुशासन में रहना, नम्रता, भक्ति, सेवा, बैठने-बोलने की शिष्टता, सद्व्यवहार आदि की जानकारी एवं अनुपालना आवश्यक है- उक्त सभी पहलुओं पर इस अध्ययन में विस्तार से वर्णन किया गया है। आत्मानुशासन के लिए विनय आवश्यक है, ये भाव गाथा के रूप में इस प्रकार प्रकट किए गए हैं
अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो।
अप्पा दंतो सूही होइ, अस्सिं लोए परत्थ य ।।1.15।। विनय समस्त मानव जीवन की सफलता के लिए आवश्यक है। इसे श्रमण-वर्ग तक सीमित करना उचित नहीं। यह साधु व गृहस्थ दोनों के लिए एक निर्देशक है। 2. जीवन का मूल्यांकन (चउरंगीय-तृतीय अध्ययन)
इस अध्ययन में दुर्लभ तत्त्व, कर्म की विचित्रता एवं जन्म---मरण के कारण बताकर धर्मपालन करने का उपदेश दिया गया है। मानव जीवन के महत्त्व का प्रतिपादन करते हए कहा गया है
चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो।
माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं । 3.1 || अर्थात् मानव जन्म, शास्त्र का श्रवण करना अर्थात् धर्म को सुनना,
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