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प्राप्त करता है।
जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क
गिहिवासे वि सुव्वए । 15.24 ।।
गृहस्थ में भी सुव्रती बना जा सकता है।
न संतसंति मरणते, सीलवंता बहुस्सुया । 15.29 । ।
ज्ञानी और सदाचारी आत्माएँ मरणकाल में भी त्रस्त अर्थात् भयाक्रांत
नहीं होती।
5. ज्ञान और आचार का सम्मिलन (खुड्डागनियंठियं -
- छठा अध्ययन) अज्ञान और अनाचार को त्याग कर सम्यग्ज्ञान और शुद्धाचार पालने का उपदेश दिया गया है।
जावंत विज्जा पुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा ।
लुप्पंति बहुसो मूढा, संसारम्मि अनंतए । 16.1 । ।
अज्ञानी और अविद्यावान् स्वयं अपने दुःखों का कारण हैं। अज्ञान कष्ट देता है और दुःख का उत्पादक है। ज्ञानी दुःख का कारण खोजता है और उसका निवारण करता है। मूढ प्राणी बार-बार विनाश को प्राप्त होते रहते हैं।
अप्पणा सच्चमेसेज्जा । 16.2 ।।
स्वयं ही सत्य की खोज करो । दुःखों से छुटकारा पाने के लिए ज्ञान प्राप्त करो और ज्ञान का जीवन में आचरण करो ।
मित्तिं भूएहिं कप्पए । 16.2 1 1 समस्त प्राणियों पर मित्रता का भाव रखो।
भता अकरिंता य बंधमोक्खपइण्णिणो ।
वाया वीरियमित्तेणं, समासासेंति अप्पयं । 16.10 11
जो मनुष्य केवल बोलते हैं, करते कुछ नहीं, वे बन्ध मोक्ष की बातें करने वाले दार्शनिक केवल वाणी के बल पर ही अपने आपको आश्वस्त किए रहते हैं।
पुव्वकम्मखयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे | 16.14 11
किए हुए कर्मों को नष्ट करने में ही इस देह की उपयोगिता है। छठा अध्ययन उपदेश देता है कि अज्ञान, अविद्या, मोह, आसक्ति से छुटकारा पाने का प्रयत्न करना चाहिए और स्वयं को सत्य और ज्ञान की खोज के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।
6. जीवन बोध (दुमपत्तयं - दसवाँ अध्ययन)
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इस अध्ययन में जीवन की क्षणभंगुरता, प्रमाद की भयंकरता आदि का उपदेश दिया गया है। जब तक शरीर स्वस्थ और सबल है, इन्द्रियाँ सक्रिय हैं तब तक प्रमाद छोड़कर धर्म आराधना करनी चाहिए। दसवाँ अध्ययन मनुष्य जीवन की वास्तविकता का उद्घाटन करता है तथा मानव को सदा अप्रमत्त, जाग्रत, कर्मशील और धर्मशील बने रहने की प्रेरणा देता
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