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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक दूसरे उद्देशक में आठ कर्मों की उत्तर प्रकृतियों एवं उनकी स्थिति आदि का वर्णन है। 24.कर्म बंध पद- आठ कर्मों में से एक-एक कर्म के बांधते हुए अन्य कर्मों के बंध का उल्लेख है। 25. कर्म वेद पद- आठ कर्मों को बांधते हुए अलग-अलग कर्म वेदने का उल्लेख है। 26. कर्म वेद बंधपद- कौनसे कर्म वेदते हुए किन-किन कर्मों का बंध होगा, इसका वर्णन है। 27. कर्म वेद वेद पद- एक-एक कर्म वेदते हुए अन्य कौन से कर्मों का वेदन होता है इनके परस्पर भंग बनाते हुए वर्णन किया है। 28. आहार पद- जीवों के आहार का विस्तार से, 29 उपयोग पद-१२ उपयोग का। 30. पश्यत्ता पद- साकार पश्यता तथा अनाकार पश्यता का। 31. संज्ञी पद- संज्ञी, असंज्ञी, नो संज्ञी, नो असंज्ञी जीवों का। 32. संयत पद- संयत, असंयत, संयतासंयत तथा नो संयत, नो असंयत, नो संयतासंयत जीवो का। 33. अवधि पद- जीवों के अवधि विषय, संस्थान, भेदों का 34 प्रविचारणपद- देवों के परिचारणा का। 35. वेदना पद- साता, असाता आदि वेदनाओं का। 36. समुद्रात पद- वेदना आदि सात समुद्घातों का विस्तार से वर्णन है।
केवली समुद्घात के बाद योग निरोध से शैलेषी अवस्था को प्राप्त कर चार अघाति कर्मों का क्षयकर आत्मा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होती है। जिस प्रकार जले हुए बीजों की पुन: अंकुर-उत्पत्ति नहीं होती है उसी प्रकार सिद्ध भगवान के कर्म बीज जल जाने से पुन: जन्मोत्पत्ति नहीं होती है। वे शाश्वत अनागत काल तक अव्याबाध सुखों में स्थित होते हैं।
___ इस सूत्र को पढ़ने का उपधान तप ग्रंथों में तीन आयम्बिल बताया गया है। प्रज्ञापना सूत्र का यह संक्षेप में विवेचन किया गया है। आगमों में ज्यों-ज्यों अवगाहन किया जाता है त्यों-त्यों अद्भुत आनंद रस की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार वैज्ञानिक लोगों को रिसर्च करते नयी-नयी जानकारी प्राप्त होने पर अपूर्व आह्लाद की प्राप्ति होती है। उसी तरह आगमों से नयानया ज्ञान प्राप्त होने पर अपूर्व आनंद की अनुभूति होती है। श्रद्धा सहित पढ़ने वाला अनुपम आत्म-सुख को प्राप्त करता है।
संदर्भ १. आयारस्स भगवओ सचूलियागस्स। समवायांग सूत्र, समवाय १८,२५,८५ २. पण्णवणाए भगवईए पढम पण्णवणा वयं समत्तं(इसी प्रकार सभी पदों के अंत में) ३. प्रज्ञापना सूत्र प्रारंभ की गाथा नं. ३(५) ४. अनुयोग द्वार टीका ५. प्रज्ञापना टीका
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