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________________ प्रज्ञापना सूत्र : एक समीक्षा - 281 13.परिणाम पद- जीव के गति आदि १० परिणामों का २४ दण्डकों में विचार किया गया है। अजीव के बंधन आदि दस परिणामों का वर्णन करते हुए बताया है कि किस प्रकार के पुद्गलों का आपस में बंध होता है। जैन दर्शन पुद्गलों में पाये जाने वाले स्निग्धत्व और रुक्षत्व इन दो गुणों के कारण बंध होना मानता है। वैज्ञानिक भी धन विद्युत (Positive Charge) और ऋण विद्युत (Negative Charge) इन दो स्वभावों को पुद्गलों के बंध का कारण मानते हैं। 14.कषाय पद- क्रोधादि चारों कषायों के भेदों का २४ दण्डकों में वर्णन एवं उनसे होने वाले कर्मों के बंधादि का वर्णन है। 15.इन्द्रिय पद- इसके दो उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में इन्द्रियों का संस्थान, रचना के द्रव्य विषयादि का वर्णन है। द्रव्यों की पृथ्वीकायादि से स्पर्शना व द्वीप समुद्र के नामों का उल्लेख भी है। द्वितीय उद्देशक में इन्द्रिय उपयोग के अवग्रहादि प्रकार, अतीत, बद्ध (वर्तमान) और पुरस्कृत (भविष्य में होने वाली) द्रव्येन्द्रियों एवं भावेन्द्रियों के आश्रय से जीवों का वर्णन है। 16.प्रयोग पद- जीव के सत्यमनोयोग आदि १५ योगों एवं प्रयोगगति आदि पांच भेदों की गतियों का वर्णन है। इस पद से नारकी और देवता के उत्तर वैक्रिय में भी वैक्रिय मिश्र योग शाश्वत बताया गया है। वैक्रिय मिश्रयोग मात्र अपर्याप्त अवस्थाभावी मानने पर वह शाश्वत नहीं रहता। क्योंकि देवता तथा नारकी निरंतर अपर्याप्त नहीं मिलते हैं। इसलिये इनके पर्याप्त अवस्था में उत्तर वैक्रिय करते हुए वैक्रिय मिश्र मानने पर ही इसकी शाश्वतता सिद्ध हो सकती हैं। जीव तथा पुद्गलों की विभिन्न गतियों का वर्णन इस पद में है। आधुनिक विज्ञान द्वारा मान्य ध्वनिगति एवं प्रकाश गति से भी अतिशीघ्र पुद्गलों तथा जीव की गति होती है, यह इसमें बताया है। 17. लेश्या पद- छ: उद्देशकों में लेश्या संबंधी विस्तार से वर्णन है। 18.कायस्थिति पद- जीव, गति, इन्द्रिय आदि २१ द्वारों से काय स्थिति का वर्णन है। 19.सम्यक्त्व पद- सम्यक्, मिथ्या और मिश्र इन तीन दृष्टियों का २४ दण्डकों में विवेचन है। 20.अंतक्रिया पद- कौनसा जीव अपने भव से मनुष्य बन कर मोक्ष जा सकता है, कौन तीर्थकर चक्रवर्ती एवं उनके १४ रत्न रूप में उत्पन्न हो सकता है, आदि वर्णन है। 21.अवगाहना संस्थान पद-पांचों शरीरों की अवगाहना आदि का वर्णन है। 22.क्रिया पद- कायिकी आदि विभिन्न क्रियाओं का विस्तार से वर्णन है। 23. कर्म प्रकृति पद- पहले उद्देशक में आठ कर्मों के बंध, उनके फल तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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