SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | 280 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक होता है, वह परिग्रह भी रखती है। अजीव प्रज्ञापना में बताये हुए द्रव्यों को आधुनिक विज्ञान ने भी किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है। धर्मास्तिकाय को ईथर (Ether), अधर्मास्तिकाय को गुरुत्वाकर्षण का क्षेत्र (Field of gravitation) के रूप में, पुद्गल (Matter) आकाश एवं काल को भी माना है। किन्तु वैज्ञानिकों द्वारा माने हुए परमाणु तथा काल की सूक्ष्म ईकाई से जैन दर्शन के परमाणु तथा काल की ईकाई अति सूक्ष्म है। 2. स्थान पद- उपर्युक्त प्रथम पद में आये हुए जीवों के रहने के स्थान का वर्णन है। 3. अल्पबहुत्व पद- दिशा, गति, इन्द्रिय आदि २७ द्वारों से जीवों का अल्पबहुत्व है। अजीवों का द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से अल्पबहुत्व बताया है तथा अंत में आगमों का सबसे बड़ा अल्पबहुत्व महादण्डक (९८ बोल की अल्पबहुत्व) है। 4. स्थिति पद- चौबीस ही दण्डकों के जीवों के पर्याप्त व अपर्याप्त की स्थिति का वर्णन है। 5. विशेष अथवा पर्याय पद- जीव अजीव के पर्यायों की द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा तुलना की गयी है। 6. व्युत्क्रांति पद- जीवों की गति आदि में उत्पात, उद्वर्तन संबंधी विरह, उनके उत्पन्न होने की संख्या का वर्णन है। साथ ही यह बताया गया है कि वे कहां से आकर उत्पन्न हो सकते हैं तथा मरकर कहां-कहां जा सकते हैं। 7. उच्छवास पद- इस पद में नैरयिक आदि २४ दण्डकों के उच्छ्वास ग्रहण करने और छोड़ने के काल का वर्णन है। 8. संज्ञा पद-आहारादि १० संज्ञाओं के आश्रय से जीवों का वर्णन है। 9. योनि पद- जीवों के उत्पन्न होने की योनियों के विभिन्न प्रकारों का वर्णन 10.चरम पद- रत्नप्रभा पृथ्वी आदि, परमाणु आदि व जीवों में चरम-अचरम का कथन है। 11.भाषा पद-भाषा के भेद, उनके बोलने में प्रयोग में आने वाले द्रव्यों का वर्णन करते हुए बताया है कि किस प्रकार बोले जाने पर भाषा के द्रव्य सारे लोक में फैल जाते हैं। उन ध्वनि तरंगों रूप द्रव्यों को ग्रहण कर शब्द सुने जाते हैं। जैन दर्शन सिवाय अन्य भारतीय दार्शनिक विचारधाराएं शब्द को आकाश का गुण मानती रही है जबकि जैन दर्शन उनको पुद्गल मानता है। जैन धर्म की इस विलक्षण मान्यता को भी विज्ञान ने प्रमाणित कर दिया है। 12.शरीर पद- औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर कितने हैं? किन जीवों को कितने प्राप्त हैं तथा उनसे छूटे द्रव्य (मुक्त शरीर) कितने हैं? इस प्रकार का वर्णन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy