SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | प्रज्ञापना सूत्र एक समीक्षा 2791 समाविष्ट हो जाता है। दिगम्बर ग्रंथ षट्खण्डागम तथा उसी के आधार से बने गोम्मटसार से भी कई विषय मेल खाते हैं। संक्षेप में धर्म, साहित्य, दर्शन, भूगोल के कई विषयों का इसमें समावेश है। . सूत्रकार आर्य श्यामाचार्य ने सूत्र के आरम्भ में सिद्धों को नमस्कार करके त्रैलोक्य गुरु भगवान महावीर को नमस्कार किया है। आगे की गाथाओं में यह बताया है कि भगवान् ने जिस प्रकार से सर्वभावों की प्रज्ञापना की है उसी प्रकार मैं भी चित्र श्रुत रत्न एवं दृष्टिवाद के निष्यंद रूप अध्ययन को कहूंगा। फिर क्रमश: ३६ पदों के नाम दिये हैं। प्रथमादि पदों की विषयवस्तु संक्षेप में निम्न है1. प्रज्ञापना पद- प्रथम पद में प्रज्ञापना को दो भागों में विभक्त किया है (अ) जीव प्रज्ञापना (ब) अजीव प्रज्ञापना। प्रथम अजीव प्रज्ञापना को कहते हुए उसके दो भेद बताये हैं- रूपी अजीव व अरूपी अजीव। अरूपी अजीव के १० भेद एवं रूपी अजीव के ५३० भेदों का वर्णन किया है। जीव प्रज्ञापना में जीवों के दो भेद किये है संसारी और सिद्ध । सिद्ध जीवों के भेद बताने के बाद संसारी जीवों का विस्तार से वर्णन भेदों के द्वारा बताया है। पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नारकी, जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प, मनुष्य तथा देवों के प्रकार समझाये गये हैं। मनुष्यों के सम्मूर्छिम, अकर्मभूमिज, अंतरद्वीपज, कर्मभूमिज आदि प्रकारों के नाम गिनाये गये हैं। कर्मभूमिज मनुष्यों के भेदों में म्लेच्छ जातियों एवं आर्यों का वर्णन है। आर्यों के अनेक भेद करते हुए उस समय की आर्य जाति या कुल, शिल्प, कर्म, लिपि एवं आर्य देशों का वर्णन किया है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र आर्यों का वर्णन है। इस प्रकार इस पद में जीव-अजीवों को व्यवस्थित वर्गीकरण के द्वारा समझाया है। सम्पूर्ण विश्व में जैन दर्शन ही एक मात्र दर्शन है जिसने वनस्पति आदि एकेन्द्रियों में भी स्पष्ट रूप से जीवत्व स्वीकार किया है तथा उनकी रक्षा के लिए सर्वांगीण उपाय बताये हैं। वनस्पति आदि की रक्षा मुख्यतया पर्यावरण की शुद्धि पर आधारित है। __ आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी वनस्पति को सचेतन सिद्ध कर दिया है। वह आहार ग्रहण करती है, बढ़ती है, श्वासोच्छ्वास लेती है, रोगी होती है तथा मरती भी है। विभिन्न प्रकार के प्रयोगों के द्वारा वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि वनस्पति भयभीत होती है, हर्षित होती है। वनस्पति विज्ञान में पौधों की मैथुन क्रिया का विशद वर्णन है। प्रज्ञापना के इस पद में वनस्पति को सचेतन माना है। आगे के पदों में उनके आयु, श्वासोच्छ्वास, भोजन, हर्ष, दु:ख आदि का वर्णन है। कंषाय पद में बताया है कि वनस्पति को क्रोध आता है, वह मान भी करती है, उसमें माया भी होती है, उसमें लोभ भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy