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________________ [14 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङका प्रो. बेवर और प्रो. बूलर ने १. उत्तराध्ययन, २. आवश्यक एवं ३. दशवैकालिक को मूलसूत्र कहा है। डॉ. सारपेन्टियर, डॉ. विन्टरनित्ज और डॉ.ग्यारीनो ने १. उत्तराध्ययन २. आवश्यक ३. दशवकालिक एवं ४. पिण्डनियुक्ति को मूलसूत्र माना है। डॉ. शुब्रिग ने उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यक, पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति को मूलसूत्र की संज्ञा दी है। स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार को मूलसूत्र मानते हैं। कहा जा चुका है कि 'मूल' सूत्र की तरह 'छेद' सूत्र का नामोल्लेख भी 'नन्दीसूत्र' में नहीं हुआ है। 'छेदसूत्र' का सबसे प्रथम प्रयोग 'आवश्यक नियुक्ति' में हुआ है। उसके पश्चात् 'विशेषावश्यक भाष्य' और 'निशीथ भाष्य' आदि में भी यह शब्द व्यवहत हुआ है। तात्पर्य यह है कि हम 'आवश्यक नियुक्ति' को यदि ज्योतिर्विद वराहमिहिर के भ्राता द्वितीय भद्रबाहु की कृति मानते हैं तो वे विक्रम की छठी शताब्दी में हुए हैं। उन्होंने इसका प्रयोग किया है। स्पष्ट है कि 'छेद सुत्त' शब्द का प्रयोग 'मूल सुत्त' से पहले हुआ है। अमुक आगमों को 'छेद सूत्र' यह अभिधा क्यों दी गई? इस प्रश्न का उत्तर प्राचीन ग्रन्थों में सीधा और स्पष्ट प्राप्त नहीं है। हाँ, यह स्पष्ट है कि जिन सूत्रों को 'छेद सुत्त' कहा गया है, वे प्रायश्चित्त सूत्र हैं। 'स्थानांग' में श्रमणों के लिए पाँच चारित्रों का उल्लेख है- १. सामायिक २. छेदोपस्थापनीय ३. परिहार विशुद्धि ४. सूक्ष्म संपराय और ५. यथाख्यात। इनमें से वर्तमान में अन्तिम तीन चारित्र विच्छिन्न हो गये हैं। सामायिक चारित्र स्वल्पकालीन होता है, छेदोपस्थापनिक चारित्र ही जीवन पर्यन्त रहता है। प्रायश्चित्त का संबंध भी इसी चारित्र से है। संभवत: इसी चारित्र को लक्ष्य में रखकर प्रायश्चित्त सूत्रों को छेद सूत्र की संज्ञा दी गई हो। मलयगिरि की 'आवश्यक वृत्ति' में छेद सूत्रों के लिए पद-विभाग, समाचारी शब्द का प्रयोग हुआ है। पद विभाग और छेद ये दोनों शब्द समान अर्थ की अभिव्यक्ति करते हैं। संभवत: इसी दृष्टि से छेदसूत्र नाम रखा गया हो। क्योंकि छेद सूत्रों में एक सूत्र का दूसरे सूत्र से संबंध नहीं है। सभी सूत्र स्वतंत्र हैं। उनकी व्याख्या भी छेद दृष्टि से या विभाग दृष्टि से की जाती है। दशाश्रुतस्कन्ध, निशीथ, व्यवहार और बृहत्कल्प ये सूत्र नौवें प्रत्याख्यान पूर्व से उद्धृत किये गए हैं, उससे छिन्न अर्थात् पृथक् करने से उन्हें छेद सूत्र की संज्ञा दी गई हो, यह भी संभव है। छेद सूत्रों को उत्तम श्रुत माना गया है। भाष्यकार भी इस कथन का समर्थन करते हैं। चूर्णिकार जिनदास महत्तर स्वयं यह प्रश्न उपस्थित करते हैं कि छेद सूत्र उत्तम क्यों हैं? फिर स्वयं ही उसका समाधान देते हैं कि छेद सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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