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जैन आगम साहित्य : एक दृष्टिपात
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में प्रायश्चित्तविधि का निरूपण है, उससे चारित्र की विशुद्धि होती है, एतदर्थ यह श्रुत उत्तम माना गया है। श्रमण जीवन की साधना का सर्वांगीण विवेचन छेद सूत्रों में ही उपलब्ध होता है। साधक की क्या मर्यादा है? उसका क्या कर्त्तव्य है ? इत्यादि प्रश्नों पर उनमें चिन्तन किया गया है। जीवन में से असंयम के अंश को काटकर पृथक् करना, साधना में से दोषजन्य मलिनता को निकालकर साफ करना, भूलों से बचने के लिए पूर्ण सावधान रहना. भूल हो जाने पर प्रायश्चित्त ग्रहण कर उसका परिमार्जन करना, यह सब छेदसूत्र का कार्य है।
'समाचारी शतक' में समयसुन्दर गणी ने छेद सूत्रों की संख्या छः बतलाई है
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१. दशाश्रुत स्कन्ध २ व्यवहार ३ बृहत्कल्प ४. निशीथ ५. महानिशीथ और ६. जीतकल्प
'जीतकल्प' को छोड़कर शेष पाँच सूत्रों के नाम 'नन्दी सूत्र' में भी कालिक सूत्रों के अन्तर्गत आये हैं। 'जीतकल्प' जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण की कृति है, एतदर्थ उसे आगम की कोटि में स्थान नहीं दिया जा सकता । 'महानिशीथ' का जो वर्तमान संस्करण है, वह आचार्य हरिभद्र (वि. ८वीं शताब्दी) के द्वारा पुनरुद्धार किया हुआ है । उसका मूल संस्करण तो उसके पूर्व ही दीमकों ने उदरस्थ कर लिया था । अतः वर्तमान में उपलब्ध 'महानिशीथ' भी आगम की कोटि में नहीं आता। इस प्रकार मौलिक छेद सूत्र चार ही हैं - १. दशाश्रुतस्कन्ध २. व्यवहार ३. बृहत्कल्प और ४. निशीथ । श्रुत पुरुष
'नन्दी सूत्र' की चूर्णि में श्रुत पुरुष की एक कमनीय कल्पना की गई है । पुरुष के शरीर में जिस प्रकार बारह अंग होते हैं- दो पैर, दो जंघाए, दो उरु, दो गात्रार्ध (उदर और पीठ), दो भुजाएँ, गर्दन और सिर, उसी प्रकार श्रुत पुरुष के भी बारह अंग हैं।
दायां पैर- आचारांग
बायां पैर-सूत्रकृतांग दायीं जंघा - स्थानांग बायीं जंघा - समवायांग
दायां उरु-- भगवती बायां उरु-ज्ञाताधर्मकथा
उदर- उपासकदशा पीठ--अन्तकृत्दशा दायीं भुजा - अनुत्तरौपपातिक बायीं भुजा - प्रश्नव्याकरण गर्दन - विपाक
सिर- दृष्टिवाट
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