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________________ जैन आगम साहित्य : एक दृष्टिपात है, पर मूलसूत्र के रूप में विभाग नहीं किया है। विक्रम संवत् १३३४ में निर्मित 'प्रभावक चरित्र' में सर्वप्रथम अंग, उपांग, मूल और छेद का विभाग मिलता है और उसके पश्चात् उपाध्याय समयसुन्दर गणी ने भी 'समाचारी शतक' में उसका उल्लेख किया है। फलितार्थ यह है कि मूल सूत्र विभाग की स्थापना तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हो चुकी थी। 'दशवैकालिक', 'उत्तराध्ययन' आदि आगमों को 'मूलसूत्र' यह अभिधा क्यों दी गई, इसके संबंध में विभिन्न विज्ञों ने विभिन्न कल्पनाएँ की 1 13 प्रो. विन्टरनित्ज का मन्तव्य है कि इन आगमों पर अनेक टीकाएँ हैं । इनसे मूल ग्रन्थ का पृथक्करण करने के लिए इन्हें मूलसूत्र कहा गया है। किन्तु उनका यह तर्क वजनदार नहीं है क्योंकि उन्होंने 'पिण्डनिर्युक्ति' को मूलसूत्र में माना है जबकि उसकी अनेक टीकाएँ नहीं हैं। डॉ. सारपेन्टियर, डॉ. ग्यारीनो और प्रोफेसर पटवर्द्धन आदि का अभिमत है कि इन आगमों में भगवान महावीर के मूल शब्दों का संग्रह है, एतदर्थ इन्हें मूलसूत्र कहा गया है। किन्तु उनका यह कथन भी युक्ति-युक्त प्रतीत नहीं होता क्योंकि भगवान महावीर के मूल शब्दों के कारण ही किसी आगम को मूलसूत्र माना जाता है तो सर्वप्रथम 'आचारांग' के प्रथम श्रुतस्कन्ध को मूल मानना चाहिये, क्योंकि वही भगवान महावीर के मूल शब्दों का सबसे प्राचीन संकलन है। हमारे मन्तव्यानुसार जिन आगमों में मुख्य रूप से श्रमण के आचार संबंधी मूल गुणों, महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि का निरूपण है और जो श्रमण जीवनचर्या में मूलरूप से सहायक बनते हैं और जिन आगमों का अध्ययन श्रमण के लिए सर्वप्रथम अपेक्षित है, उन्हें मूलसूत्र कहा गया है। हमारे इस कथन कि पुष्टि इस बात से भी होती है कि पूर्वकाल में आगमों का अध्ययन 'आचारांग' से प्रारम्भ होता था। जब 'दशवैकालिक' सूत्र का निर्माण हो गया तो सर्वप्रथम 'दशवैकालिक' का अध्ययन कराया जाने लगा और उसके पश्चात् 'उत्तराध्ययन' पढ़ाया जाने लगा। पहले 'आचारांग' के 'शस्त्र परिज्ञा' प्रथम अध्ययन से शैक्ष की उपस्थापना की जाती थी परन्तु 'दशवैकालिक' की रचना होने के पश्चात् उसके चतुर्थ अध्ययन से उपस्थापना की जाने लगी। मूलसूत्रों की संख्या के संबंध में भी मतैक्य नहीं है । समयसुन्दर गणी ने १. दशवैकालिक २. ओघ निर्युक्ति ३. पिण्डनिर्युक्ति और ४. उत्तराध्ययन, ये चार मूलसूत्र माने हैं। भावप्रभसूरि ने १. उत्तराध्यन २. आवश्यक ३. पिण्डनिर्युक्ति- ओघनियुक्ति और ४. दशवैकालिक ये चार मलसत्र माने हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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