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________________ राजप्रश्तीय सूत्र 257 सम्पन्न हैं। तब राजा प्रदेशी चित्त सारथी सहित केशी कुमार श्रमण के समीप पहुँचा । केशीकुमार श्रमण एवं राजा प्रदेशी के बीच 'तत् जीव तत् शरीरवाद' को लेकर जो रोचक संवाद हुआ उसका सार इस प्रकार है राजा- क्या आप जीव और शरीर को अलग मानते हैं? तुम मेरे चोर हो । मुनिराजा - मुनि राजा - मुनि चौंककर क्या मैं चोर हूँ? मैंने कभी किसी की चोरी नहीं की है। क्या तुम अपने राज्य में चुंगी न चुकाने वाले को चोर नहीं मानते हो ? मुनिराज ! यहाँ बैठूं ? यह पृथ्वी तुम्हारे अधिकार में है । ( इस विचित्र एवं प्रभावशाली उत्तर को सुनकर राजा को पूर्ण विश्वास हो गया कि मुनिराज असाधारण हैं, मेरी शंका का समाधान अवश्य होगा) राजा क्या आप जीव और शरीर को अलग-अलग मानते हैं? मुनि- हाँ ! मृत्यु के पश्चात् शरीर में रहने वाला जीव अन्यत्र जाकर दूसरे शरीर को धारण करके पहले के पुण्य पाप का फल भोगता है। राजा - मेरे दादा बहुत पापी थे। आपके कथनानुसार वे नरक में गये होंगे और वहाँ दुःख भोगते होंगे। वे यहाँ आकर मुझसे कहते कि- बेटा ! पाप न कर, पाप करेगा तो मेरी तरह नरक में दु:ख भोगेगा, तो मैं मानूँ कि जीव व शरीर भिन्न है । मुनि- तुम अपनी सूर्यकान्ता रानी के साथ किसी पापी मनुष्य को व्यभिचार करते देखो तो क्या करोगे? राजा - मुनि - ( चतुर राजा ने तत्काल मुनि के अभिप्राय को समझकर यथोचित वंदना की और कहा) उसी समय और उसी जगह उसकी जान ले लूँ? कदाचित् वह पुरुष हाथ जोड़कर प्रार्थना करे कि राजन् ! मुझे थोड़ी देर के लिए छुट्टी दीजिए। मैं अभी अपने लड़के को बताकर आता हूँ कि वह व्यभिचार करेगा तो मेरी तरह मारा जायेगा । तो क्या आप उस पापी को थोड़ी देर के लिए छोड़ दोगे ? राजा- ऐसा कौन मूर्ख होगा जो अपराधी के कहने का भरोसा कर ले। मुनि- जब तुम एक पाप करने वाले को, अपनी ही राज्य सीमा के भीतर, जाकर आने की थोड़ी सी देर की छुट्टी नहीं दे सकते, तो अनेक पाप करने वाले तुम्हारे दादा को इतनी दूर आने की छुट्टी कैसे मिल सकती है ? राजा- ठीक है, किन्तु मेरी दादी धर्मी थी, उन्हें अवश्य स्वर्ग मिला होगा, वह यह बताने क्यों नहीं आती कि धर्म का फल उत्तम होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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