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________________ अन्तकृदशासूत्र का समीक्षात्मक अध्ययन श्री मानमल कुदाल अंतगडदसा सूत्र के आठ वर्गों के ९० अध्ययनों में मुमुक्षुओं के वैराग्य, प्रव्रज्या, अध्ययन, साधना एवं सिद्धि का तो वर्णन है ही, किन्तु इसमें वासुदेव श्रीकृष्ण, भ. अरिष्टनेमि, तीर्थकर महावीर, गणधर गौतम आदि के जीवन संबंधी घटनाएँ भी उपलब्ध हैं। अध्यवसायी विद्वान् श्री कुदाल ने अंतगडदसा सूत्र' 'के नामकरण, रचनाकाल, भाषाशैली, विषयवस्तु एवं सूत्र की विशेषताओं पर अच्छा प्रकाश डाला है । -सम्पादक प्रत्येक धर्म-परम्परा में धर्म ग्रंथों का आदरणीय स्थान होता है। जैन परम्परा में आगम- साहित्य को प्रामाणिक एवं आधारभूत ग्रंथ माना गया है। जैन आगम - साहित्य अंग, उपांग, छेद, मूल, प्रकीर्णक आदि वर्गों में विभाजित है । यह विभागीकरण हमें सर्वप्रथम विधिमार्गप्रपा (आचार्य जिनप्रभ १३वीं शताब्दी) में प्राप्त होता है। अन्य आगमों के वर्गीकरण में 'अंतकृद्दशांग' का उल्लेख अंग प्रविष्ट आगमों में आठवें स्थान पर हुआ है। आगम साहित्य में साधुसाध्वियों के अध्ययन - विषयक जितने उल्लेख प्राप्त होते हैं, वे सब अंगों और पूर्वो से संबंधित हैं और वे सब हमें 'अन्तकृद्दशांग' में भी प्राप्त होते हैं, जैसे (क) सामायिक आदि ग्यारह अंगों को पढने वाले १. अन्तगड़, प्रथम वर्ग में भ. अरिष्टनेमि के शिष्य गौतम के विषय में प्राप्त होता है "सामाइयमाइयाइं एक्कारसअंगाई अहिज्जइ" २. अन्तगड, पंचम वर्ग, प्रथम अध्ययन में भ. अरिष्टनेमि की शिष्या पद्मावती के विषय में प्राप्त होता है "सामाइयमाइयाइं एक्कारसअंगाई अहिज्जइ" ३. अन्तगड, अष्टम वर्ग, प्रथम अध्ययन में भगवान महावीर की शिष्या काली के विषय में प्राप्त होता है "सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई अहिज्जइ" ४. अन्तगड, षष्ठ वर्ग, १५वें अध्ययन में भगवान महावीर के शिष्य अतिमुक्त कुमार के विषय में प्राप्त होता है 'सामाइयमाइयाइं एक्कारसअंगाई अहिज्जइ" (ख) बारह अंगों को पढ़ने वाले - अन्तगड, चतुर्थ वर्ग, प्रथम अध्ययन में भगवान अरिष्टनेमि के शिष्य जालिकुमार के विषय में प्राप्त होता है "बारसंगी " (ग) चौदह पूर्वो को पढने वाले १. अन्तगड, तृतीय वर्ग, नवम अध्ययन में भगवान अरिष्टनेमि के शिष्य सुमुखकुमार के विषय में प्राप्त होता है- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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