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________________ जिनवाणी- जैनागम- साहित्य विशेषाङ्क "चोद्दसपुव्वाइं अहिज्जइ" २. अन्तगड, तृतीय वर्ग, प्रथम अध्ययन में भ. अरिष्टनेमि के शिष्य अणीयसकुमार के विषय में प्राप्त होता है "सामाइयमाइयाइं चोदसपुव्वाइं अहिज्जइ" 200 नामकरण 'अंतकृदशासूत्र' में जन्म मरण की परम्परा का अन्त करने वाली पवित्र आत्माओं का वर्णन होने से और इसके दस अध्ययन होने से इसका नाम “अन्तकृत्दशा" है। इस सूत्र के नामकरण के बारे में हमें विभिन्न प्रकार के उल्लेख प्राप्त होते हैं। "समवायांग" में इस सूत्र के दस अध्ययन और सात वर्ग बताये हैं। आचार्य देववाचक ने नन्दीसूत्र में आठ वर्गों का उल्लेख किया है, दस अध्ययनों का नहीं।' आचार्य अभयदेव ने समवायांग वृत्ति में दोनों ही उपर्युक्त आगमों के कथन में सामंजस्य बिठाने का प्रयास करते हुए लिखा है कि प्रथम वर्ग में दस अध्ययन हैं, इस दृष्टि से समवायांग सूत्र में दस अध्ययन और अन्य वर्गों की अपेक्षा से सात वर्ग कहे हैं । नन्दीसूत्रकार ने अध्ययनों का कोई उल्लेख न कर केवल आठ वर्ग बतलाये हैं । यहाँ प्रश्न यह उठाया जा सकता है कि प्रस्तुत सामंजस्य का निर्वाह अन्त तक किस प्रकार हो सकता है? क्योंकि समवायांग में ही अन्तकृद्दशा के शिक्षाकाल दस कहे गये हैं जबकि नन्दीसूत्र में उनकी संख्या आठ बताई है। आचार्य अभयदेव ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि हमें उद्देशनकालों के अन्तर का अभिप्राय ज्ञात नहीं हैं।' आचार्य जिनदासगणी महत्तर ने नन्दीसूत्र चूर्णि में और आचार्य हरिभद्र ने नन्दीवृत्ति में लिखा है कि प्रथम वर्ग के दस अध्ययन होने से इनका नाम “अन्तगडदसाओ” है। नन्दीचूर्णीकार ने 'दशा' का अर्थ अवस्था किया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि समवायांग में दस अध्ययनों का निर्देश तो है, किन्तु उन अध्ययनों के नामों का संकेत नहीं है । स्थानांगसूत्र में अध्ययनों के नाम इस प्रकार बतलाये हैं- नमि, मातंग, सोमिल, रामगुप्त, सुदर्शन, जमालि, भगालि, किंकष, चिल्वक्क, फाल और अंबडपुत्र । अकलंक ने राजवार्तिक" और शुभचन्द्र ने अंगपण्णत्त" में कुछ पाठभेदों के साथ दस नाम दिये हैं- नमि, मातंग, सोमिल, रामगुप्त, सुदर्शन, यमलोक, वलीक, कंबल, पाल और अंबष्टपुत्र । इसमें यह भी लिखा है कि प्रस्तुत आगम में प्रत्येक तीर्थंकर के समय में होने वाले दस-दस अन्तकृत केवलियों का वर्णन है। इसका समर्थन वीरसेन और जयसेन जो जयधवलाकार हैं ने भी किया है।" नन्दीसूत्र में न तो दस अध्ययनों का उल्लेख है और न उनके नामों का निर्देश है। समवायांग और तत्त्वार्थराजवार्तिक में जिन अध्ययनों के नामों का निर्देश है वे अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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