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________________ 192 चैन नहीं मिलता। एक बार महाराज श्रेणिक ने पशुवध बन्द करा दिया। तब वह अपने पीहर से प्राप्त गोव्रज में से दो बछड़ों को नौकर द्वारा मरवा कर प्रतिदिन उनका माँस खाने लगी । उधर महाशतक श्रमणोपासक ने श्रावक व्रतों को धारण कर लिया। ऐसा करते १४ वर्ष बीत गये । तत्पश्चात् उन्होंने ग्यारह उपासक प्रतिमाओं को अंगीकार कर लिया एवं शरीर कमजोर होने पर संथारा कर लिया। साधना में उन्हें अवधिज्ञान हो गया। संसार के प्रति उदासीन वृत्ति को देखकर रेवती कामवासना में उन्मत्त होकर उन्मादजनक वचन, कामोद्दीपक बड़बड़ बोलने लगी। महाशतक को भी क्रोध आ गया। उन्होंने कहा, तेरी आयुष्य पूर्ण होने वाली है, सात दिन के अन्दर अलसक नामक रोग से पीड़ित होकर अपने किये कुकर्मों के कारण पहली नरक में चौरासी हजार वर्ष की आयु वाले नैरयिकों में उत्पन्न होगी। भगवान महावीर ने गौतम को महाशतक को प्रतिबोध देने भेजा कि तुम्हें संलेखना संथारा में सत्य तथा यथार्थ होते हुए भी कठोर एवं अकमनीय, असुन्दर वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए । गौतम महाशतक के पास गये । महाशतक ने भूल स्वीकार की तथा उपयुक्त भावों की आलोचना कर समाधिपूर्वक देहत्याग किया तथा पहली देवलोक में ४ पल्योपम का आयु भोग कर महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे। ( 9 ) श्रमणोपासक नन्दिनीपिता श्रावस्तीनगर में नन्दिनीपिता नामक समृद्धिशाली गाथापति अपनी पत्नी अश्विनी के साथ रहता था । उसके ४ करोड़ स्वर्णमुद्राएँ सुरक्षित धन के रूप में, ४ करोड़ व्यापार, ४ करोड़ घर बिखरी में थी तथा दस-दस हजार गायों के चार संकुल थे। भगवान महावीर के श्रावस्ती नगर पधारने पर वह श्रावक धर्म अपनाकर श्रमणोपासक बन गया तथा श्रावक के बारह व्रतों का पालन करता हुआ आनन्द श्रावक की तरह अपने ज्येष्ठ पुत्र को पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व सौंप कर धर्मोपासना में निरत रहने लगा। बीस वर्षों तक श्रावक धर्म का पालन किया तथा अन्त में देह त्याग कर पहली देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहां से महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होगा। जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क ( 10 ) श्रमणोपासक सालिहीपिता श्रावस्ती नगरी में सालिहीपिता नामक एक धनाढ्य एवं प्रभावशाली गाथापति रहता था। नंदिनीपिता की तरह वह भी १२ करोड़ का स्वामी था तथा एक भाग व्यापार में, एक भाग घर बिखरी में, एक भाग सुरक्षित तथा चार गोकुल थे। एक बार भगवान महावीर का श्रावस्ती नगरी में पदार्पण हुआ ।, श्रद्धालुजनों में उत्साह छा गया, सालिहीपिता भी गया। उसने श्रावक धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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