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________________ उपासकदशांग : एक अनुशीलन ZUR 9 193 स्वीकार कर लिया । १४ वर्ष बाद अपने ज्येष्ठ पुत्र को घरबार सौंप धर्माराधना में लग गया तथा श्रावक की ११ प्रतिमाओं को धारण किया। उन्हें कोई उपसर्ग नहीं आया । अन्त में समाधिमरण प्राप्त कर पहले देवलोक के अरुणकील विमान में देव उत्पन्न हुआ, वहां से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, होंगे। बुद्ध और: मुक्त उपसंहार इन दस श्रमणोपासकों के अध्ययन से यह पता चलता है कि भगवान महावीर के शासन काल में ऐसे श्रावक थे, जिन्हें देव-दानव कोई धर्म से डिगा नहीं सकते थे । आनन्द और कामदेव तो अन्त तक देव के सामने नहीं झुके नहीं डरे । चुलनीपिता मातृवध की धमकी से, सुरादेव सोलह भयंकर रोग उत्पन्न होने की धमकी से, चुल्लशतक सम्पत्ति बिखेरने की धमकी से देव को मारने की भावना से उठे अवश्य लेकिन धर्म नहीं छोड़ा तथा आवेश लाने का प्रायश्चित्त भी कर लिया। सकड़ालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा ने आगे बढ़कर पति को प्रायश्चित्त के लिए प्रेरणा दी। ये सभी चरित्र हमें भी उपसर्ग के समय पाखण्डी देवों के सन्मुख विचलित न होने की प्रेरणा देते हैं। 1 इस सूत्र में वर्णित दस श्रावकों के जीवन में कई समानताएँ हैं । सभी उपासकों ने बीस वर्ष की श्रावक पर्याय पालन की, श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं की आराधना की, देव-दानवों और मानवों द्वारा प्रदत्त घोर परीषह सहन किये, संलेखना संथारा किया, प्रथम देवलोक में ४ पल्योपम की स्थिति वाले देव बने तथा अगले भव में महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य भव को प्राप्त कर मुक्ति पाने वाले होंगे। इस प्रकार की समानता के कारण ही आगमकार ने इन दस उपासकों का वर्णन इस अंगसूत्र में किया, अन्यथा यत्र-तत्र आगमों में सुदर्शन, तुंगियां के श्रावक, पूणिया श्रावक आदि कई श्रावकों का वर्णन है । दूसरी ओर गौतम गणधर द्वारा आनन्द श्रमणोपासक से क्षमायाचना करना बड़ा उद्बोधक प्रसंग है । प्रसन्नतापूर्वक अपने अनुयायी से क्षमा मांगने उनकी पौषधशाला में पहुँच जाते हैं। जैन दर्शन का कितना ऊँचा आदर्श, व्यक्ति बड़ा नहीं, सत्य बड़ा है। एक गणधर अपने साधु समाज से ही नहीं श्रावक से भी क्षमा मांगने सहज चले गये, कितनी अभिमान शून्यता है । किसी कवि ने ठीक ही कहा है Jain Education International खुद की खुदाई से जो जुदा हो गया । खुदा की कसम वह खुदा हो गया । इस तरह यह अंगसूत्र श्रावक-श्राविकाओं के लिये मार्गदर्शक का काम करता है। हमें भी अपने पारिवारिक जीवन को व्यवस्थित एवं अनुशासित करते हुए, जीवन के अंतिम लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए जीवन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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