SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ MAPTSSENA | उपासकदशांग : एक अनुशीलन 191 यहां त्रिलोक पूज्य, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, केवलज्ञान के धारक, देव-दानवों से पूजित देव आयेंगे, तुम उनके पास जाकर पर्युपासना करना'' ऐसा कहकर देव चला गया। सकड़ालपुत्र ने सोचा गोशालक अतिशयधारी है वे कल आयेंगे, मैं उन्हें प्रतिहारिक पीठफलक आदि का निमन्त्रण दूंगा। दूसरे दिन भगवान महावीर के आने पर सकड़ालपुत्र धर्मकथा सुनने गया। भगवान ने उनसे कहा- देव ने गोशालक के लिए नहीं कहा था। यह सुन उन्होंने भगवान को उचित पाठ पढाने एवं रहने के लिए ३०० दुकानें दे दी। फिर भगवान से नियतिवाद की अप्रमाणिकता पर कई प्रश्न पूछे जिससे सेठ की सारी शंकाएँ दूर हो गई और वह भगवान का भक्त बन गया तथा पत्नी को प्रेरणा देकर प्रभु महावीर के धर्मोपदेश सुनने भेजा। वह भी श्राविका बन गई, श्राविका व्रत धारण कर लिये। गोशालक सकड़ालपुत्र के जैनी बनने पर पोलासपुर आया, उसने बहुत प्रयास किये, परन्तु वह सकड़ालपुत्र को किसी भी तरह विचलित नहीं कर पाया, अतएव खेद करते हुए गोशालक अन्य जनपदों में विचरने लगा। चौदह वर्ष श्रावक धर्म की पर्याय का पालन किया। पन्द्रहवें वर्ष पौषधशाला में धर्मविधि की आराधना करते समय एक देव आया। उसने एक-एक कर तीनों लड़कों को सकड़ालपुत्र के सामने मारा, उनके नौ मांस खंड कर उसके शरीर पर छिड़का, वह नहीं घबराया तो पत्नी के बारे में भी ऐसा करने को कहा। वह विचलित हो गया, देव को पकड़ने लगा। वह देव आकाश-मार्ग से चला गया, खम्भा हाथ लगा। पत्नी ने वस्तुस्थिति समझाकर प्रायश्चित्त करवाया, एक माह का संथारा कर प्रथम देवलोक में ४ पल्योपम की आयु वाले अरुणभूत विमान का उपभोग कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे। (8) श्रमणोपासक महाशतक राजगृह नगर में महाशतक नामक समृद्ध गाथापति अपनी तेरह पत्नियों के साथ सुखपूर्वक रह रहा था। उसके पास २४ करोड़ (स्वर्णमुद्राओं) में से ८ करोड़ बचत, ८ करोड़ घर बिखरी, ८ करोड़ व्यापार में, आठ व्रज यानी ८०००० पशु धन था। भगवान महावीर के गुणशील उद्यान में पधारने, धर्मोपदेश सुनने के बाद अपनी सम्पत्ति का परिमाण किया। एक बार रेवती ने सोचा कि बारह सौतों (सपत्नियों)के होते मैं यथेष्ट कामभोग का सेवन नहीं कर सकती, अतएव किसी तरह इनकी जीवन लीला समाप्त कर दी जाय, जिससे इनके पीहर से आये सारे धन का भी उपभोग कर सकूँ। उसने अपनी ६ सौतों को शस्त्र प्रयोग से तथा छ: सौतों को विष देकर मार डाला तथा उनका १२ करोड़ का धन अपने अधीन कर लिया तथा भोग में इतनी तल्लीन हो गई कि मदिरा और मांस के बिना उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy