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स्थानांग सूत्र का प्रतिपाद्य
आत्मा की अंगभूत ज्ञानराशि को एक-दो आदि के क्रम से स्थान दिया गया है । इस अर्थ की भी सूचना दे रहा है 'स्थानांग' यह नाम ।
गणिपिटक में 'स्थानोंग सूत्र' को तीसरा स्थान दिया गया है जो इसके महत्त्व का प्रतिपादन कर रहा है। विद्वानों का विचार है कि अन्य नौ आगमों के निर्माण के अनन्तर स्मृति एवं धारणा की दृष्टि से अथवा विषय अन्वेषण की सरलता की दृष्टि से स्थानांग सूत्र और समवायांग सूत्र का निर्माण किया गया होगा और इन्हें विशेष प्रतिष्ठा देने के लिये अंगों में स्थान दे दिया होगा। परन्तु यह तथ्य बुद्धि को अपील नहीं करता है।
बात यह है कि यदि नौ आगमों के निर्माण के अनन्तर स्थानांग सूत्र और समवायांग सूत्र का निर्माण हुआ होता तो इनको तीसरा, चौथा अंग न मानकर दसवां ग्यारहवां अंग ही माना जा सकता था, इन्हें चौथा स्थान देने की क्या आवश्यकता थी? दसवां, ग्याहरवां स्थान देने पर इनकी महत्ता में कोई अन्तर भी नहीं आ सकता था, क्या दसवें प्रश्नव्याकरण सूत्र और ग्यारहवें विपाक सूत्र की महत्ता कम हो गई है?
मालूम होता है कि आचारांग और सूत्रकृतांग को पहले इसलिये रखा गया है कि नवदीक्षित साधु आचार में परिपक्व हो जाए, वह साधु -वृत्ति के नियमों से परिचित हो जाए, हेय-उपादेय को जान जाय। इस प्रकार निरन्तर आठ वर्ष तक साधुचर्या में परिनिष्ठित होकर वह ज्ञातव्य विषयों की नामावली को जाने, उनके सामान्य रूप से परिचित हो जाय और फिर वह क्रमश: प्रत्येक विषय की व्याख्या अन्य आगमों से प्राप्त करे, इसलिये स्थानांग सूत्र को तीसरा स्थान दिया गया होगा ।
स्थानांग और समवायांग को बुद्धिगम्य कर लेने के अनन्तर एक प्रकार से श्रुत साधक समस्त आगमों का वेत्ता हो जाता है, इसलिये आगमकार उसे श्रुतस्थविर कहते हैं और व्यवहार सूत्र के दसवें उद्देशक के पन्दहवें सूत्र में श्रुतस्थविर को श्रेष्ठ बताते हुए कहा गया है कि वन्दना, छन्दोऽनुवृत्ति तथा पूजा सत्कार से श्रुत - स्थविर का विशेष सम्मान करना चाहिये। वहाँ यह भी कहा गया है कि जो 'स्थानांग और समवायांग का अध्येता है और आठ वर्ष की दीक्षावाला है वह आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक, प्रवर्तक आदि पदवियों के योग्य होता है। शास्त्रकार की यह व्यवस्था स्थानांग सूत्र की महत्ता और उसके तृतीय स्थानस्थ होने के कारण का निर्देश करती है।
गणी,
व्यवहार सूत्र का यह कथन है कि "अट्ठवासपरियागस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पर ठाणसमवाए उद्दिसित्तए" - अर्थात् आठ वर्ष का दीक्षित साधु स्थानांग और समवायांग के अध्ययन के योग्य होता है, उसका कारण भी यही बताया गया है कि चार वर्ष तक दीक्षापर्याय का आचारनिष्ठ होकर
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