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________________ 1144 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक पालन करने वाला स्थिर-बुद्धि हो जाता है, अत: वह अन्य मतावलम्ब्यिों से प्रभावित नहीं हो पाता। पाँचवें वर्ष में दस कल्प व्यवहारों को जान कर वह और भी दृढ आस्था वाला हो जाता है. अत: इसके अनन्तर वह स्थानांग और समवायांग का भलीभाँति अध्ययन कर सकता है। __यहाँ एक बात अवश्य विचारणीय है कि क्या स्थानांग सूत्र का अध्ययन केवल आठ वर्ष की दीक्षा पर्यायवाला साधु ही कर सकता है ? अन्य नहीं? किन्तु आगमों में अनेक श्रावकों द्वारा सूत्रों के अध्ययन का उल्लेख प्राप्त होता है, अत: इसका यही आशय है कि पूर्ण आचारवान बनकर श्रद्धापूर्वक ज्ञान के चौदह अतिचारों को ध्यान में रखकर श्रावकश्राविका वर्ग भी इसका अध्ययन कर सकता है। अध्ययन संख्या स्थानांग सूत्र में १० अध्ययन हैं और १० अध्ययनों का एक ही श्रुतस्कन्ध है। द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अध्ययन के चार-चार उद्देशक हैं, पंचम अध्ययन के तीन उद्देशक हैं और शेष छ: अध्ययनों के एक-एक उद्देशक हैं। इस प्रकार स्थानांग सूत्र १० अध्ययनों और २१ उद्देशकों में विभक्त है। श्रुतस्कन्ध स्थानांग सूत्र में केवल एक श्रुतस्कन्ध है। अनेक अध्ययनों के समूह को स्कन्ध कहा जाता है। स्कन्ध वृक्ष के उस भाग को अर्थात् तने को कहते हैं जहाँ से अनेक शाखाएँ फूटती हैं। जब किसी श्रुत अर्थात् शास्त्र में वर्ण्य विषय एवं शैली आदि की दृष्टि से अनेक विभाग किये जाते हैं, उन्हें श्रुतस्कन्ध कहते हैं। जैसे आचारांग को बाह्य आचार और आन्तरिक आचार की दृष्टि से दो भागों में बांट दिया गया है। सूत्रकृतांग को पद्य और गद्य की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया गया है। ज्ञाताधर्म कथा को आराधक और विराधक की दृष्टि से और प्रश्नव्याकरण सूत्र को आस्रव और संवर की दृष्टि से दो-दो भागों में बांटा गया है। इस प्रकार इन शास्त्रों के दो-दो श्रुतस्कन्ध हैं, परन्तु प्रस्तुत स्थानांग में एक ही श्रुतस्कन्ध हैं, क्योंकि यहाँ आदि से लेकर अन्त तक एक आदि संख्या के क्रम से तत्त्व निरूपण रूप विषय का प्रतिपादन किया गया है। अध्ययन जैनागमों का विषय-विभाग की दृष्टि से जब वर्गीकरण किया जाता है तब बड़े प्रकरण को अध्ययन और छोटे प्रकरण को उद्देशक कहा जाता है। बड़े प्रकरण के लिये अध्ययन शब्द का प्रयोग केवल जैनागमों में ही प्रयुक्त हुआ है। कभी-कभी विषय-सूचक शब्द को इसके साथ संयुक्त करके समग्र अध्ययन के वर्ण्य विषय का निर्देश कर दिया जाता है। जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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