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स्थानांग सूत्र का प्रतिपाद्य
.श्री तिलकधर शास्त्री तृतीय अंग-आगम 'स्थानांग' सूत्र में एक से लेकर दश संख्याओं में आगम, दर्शन, इतिहास, खगोल आदि की विविध जानकारियों को वर्गीकृत किया गया है। इससे संबद्ध विषयवस्तु का सुगमता से स्मरण हो सकता है। प्रतिपादन में नयदृष्टि रही है। आचार्य श्री आत्माराम जैन प्रकाशन समिति, लुधियाना से प्रकाशित स्थानांगसूत्र की प्रस्तावना श्री तिलकधर जी शास्त्री ने लिखी थी। उसी का अंश यहाँ पर संकलित कर प्रस्तुत किया गया है।
-सम्पादक
'स्थानांग' सूत्र ११ अंगों में तीसरा अंग है जिसे हम जैन संस्कृति का 'विश्वकोष' कह सकते हैं। संख्या के क्रम से तत्त्वों के नामों का संकलन करने की सुन्दर शैली में लिखा गया यह एक अद्भुत ग्रन्थ है जो संभवत: स्मरण-शक्ति की वृद्धि के लिये निर्मित हुआ होगा। सबसे पहले 'स्थानांग' नाम पर ही विचार करना उपयुक्त होगा।
___'स्थानांग' यह शब्दं ‘स्थान' और 'अंग' इन दो शब्दों के मेल से बना है। स्थान शब्द अनेकार्थक है, परन्तु सूत्रकार को इसके दो अर्थ अभीष्ट प्रतीत होते हैं। 'देशी नाममाला' में स्थान का अर्थ 'मान' अर्थात् परिमाण किया गया है। प्रस्तुत आगम में तत्त्वों के एक से लेकर दस तक के परिमाण अर्थात् संख्या का उल्लेख है, अत: इसे 'स्थान' कहा गया है। 'स्थान' शब्द का अर्थ 'उपयुक्त' भी होता है। प्रस्तुत आगम में तत्त्वों का एक, दो आदि के क्रम से उपयुक्त चुनाव किया गया है, अत: इसे 'स्थान' कहा गया है। अभिप्राय यह है कि यह आगम ऐसा 'स्थान' है जिसमें तत्त्वों की संख्या का उपयुक्त निर्देश किया गया है। - दूसरा शब्द 'अंग' है। वैदिक साहित्य में प्रमुख ग्रन्थों को 'संहिता' अथवा 'वेद' कहा गया है और उनके अध्ययन के लिये सहायक विविध विषयों के शिक्षा, छन्द, व्याकरण, ज्योतिष, निरुक्त और कल्प आदि के प्रतिपादक गौण ग्रन्थों को अंग कहा गया है, परन्तु जैन साहित्य में इस शब्द का प्रयोग प्रधान ग्रन्थों के लिये किया गया है। जैन संस्कृति में द्वादशांगी के लिये जिस 'गणिपिटक' शब्द का प्रयोग किया जाता है उस गणिपिटक का प्रत्येक ग्रन्थ एक अंग है, इसीलिये जैनाचार्यों ने श्रुत पुरुष की कल्पना करते हुए ‘गणिपिटक' को ही श्रुतपुरुष कहा है और प्रत्येक आगम को उसका एक अंग माना है। अंग समूह भी ‘अंग' कहलाता है, इसीलिये शरीर को अंग कहा गया है 'अंग' शब्द 'स्थान' के साथ मिलकर यह ध्वनित करता है कि यह आगम एक ऐसा आगम है जिसमें प्रत्येक तत्त्व की संख्याक्रम से स्थापना की गई है।
'ज्ञान' आत्मा का अंग है, यह आगम एक ऐसा आगम है जिसमें
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