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________________ स्थानांग सूत्र का महत्त्व एवं विषय वस्तु 133 शैली अपनायी गयी है। यह शैली स्मरण करने की दृष्टि से उपयोगी है। यह एक ऐसी शैली है जो जैन आगमों के अलावा वैदिक और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में भी प्राप्त है। यह भेद - प्रभेद की दृष्टि को भी लिए हुए है। अंग-आगमों के क्रम में स्थानांग को तीसरे स्थान पर रखने का तात्पर्य यह रहा होगा कि नवदीक्षित साधु प्रथम आचारांग और द्वितीय सूत्रकृतांग में परिपक्व बने, फिर वह नियमों से परिचित होकर हेय - उपादेय को समझे, उस पर विचार करे । उसमें परिनिष्ठ एवं परिपक्व होकर ज्ञातव्य विषयों की नामावली को जाने और उनके सामान्य रूप से परिचित हो । स्थानांग और समवायांग को बुद्धिगम्य कर लेने के अनन्तर एक प्रकार से श्रुत साधक समस्त आगमों का वेत्ता हो जाता है । आगमकार उसे श्रुत स्थविर कहते हैं । जैन आगम - साहित्य में श्रुत स्थविर के लिए "ठाणं समवायधरे" यह विशेषण आया है। इस विशेषण से स्पष्ट होता है कि इस आगम का आगमों में कितना अधिक महत्त्व है । व्यवहारसूत्र के दसवें उद्देशक के पन्द्रहवें सूत्र में श्रुत स्थविर को श्रेष्ठ बताते हुए कहा गया है कि श्रुत स्थविर का आदर सत्कार करना चाहिए। उनके आने पर खड़े होना चाहिए तथा वन्दन आदि के साथ उनका विनय करना चाहिए। वहाँ यह भी कहा गया है कि जो स्थानांग और समवायांग का अध्ययन करने वाला दीक्षार्थी है, वह आचार्य, उपाध्याय, गणी, गणावच्छेदक, प्रवर्तक आदि पदवियों के योग्य होता है। शास्त्रकार की यह व्यवस्था स्थानांग सूत्र की महत्ता का निर्देश देती है। व्यवहार सूत्र के अनुसार स्थानांग और समवायांग के ज्ञाता को आचार्य, उपाध्याय और गणावच्छेदक पद देने का विधान है। इस विधान से इस अंग आगम की एक नवीन विशेषता हमारे सामने आती है । स्थानांग सूत्र में चारों अनुयोगों का समावेश है। इसमें द्रव्यानुयोग की दृष्टि से ४२६ सूत्र हैं। इसी क्रम में श्रमण भगवान महावीर संबंधी घटनाएँ भी हैं उन्हें सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी कहा गया है। इसमें आगामी उत्सर्पिणी काल के भावी तीर्थंकर महापद्म का चरित्र भी दिया गया है तथा भविष्य में होने वाली अनेकानेक घटनाओं का उल्लेख है। इसके प्रथम अध्ययन में संग्रहनय की दृष्टि से विवेचन है | संग्रहनय में सम्पूर्ण पदार्थों का सामान्य रूप से ज्ञान कराया जाता है, इस दृष्टि को ध्यान में रखकर संख्याओं का स्थान के नाम से कथन किया गया है। आचार्य अभयदेव ने "स्थान" को अध्ययन भी कहा है। स्थानांग में विभिन्न कथाओं के संकेत एवं संक्षिप्त उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। जिनमें भरत चक्रवर्ती, गजसुकुमाल, सम्राट् सनत्कुमार और मरुदेवी की कथाओं का उल्लेख प्रमुख है। इसमें इसी तरह के विविध विषयों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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