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________________ स्थानांग सूत्र का महत्त्व एवं विषय वस्तु * डॉ. पारसमणि खींचा स्थानांग एक से लकर देश तक की संख्याओं / स्थानों में धर्म, इतिहास, खगोल, भूगोल, दर्शन, आचार आदि से सम्बद्ध तथ्यों का कोश की तरह संकलन है। तथ्यों को समझने एवं स्मरण रखने की दृष्टि से यह एक विशिष्ट शैली है। स्थानांगसूत्र में निरूपित विभिन्न जानकारियाँ ज्ञान को तो समृद्ध बनाती ही हैं, किन्तु जीवन को सम्यक् उत्कर्ष की दिशा भी प्रदान करती हैं। डॉ० पारसमणि जी ने संक्षेप में स्थानांग सूत्र महत्त्व एवं विषयवस्तु से परिचित कराया है। - सम्पादक आगमों में स्थानांग सूत्र का तीसरा स्थान है। इसे जैन संस्कृति का विश्वकोष भी कहा जाता है। यह शब्द 'स्थान' और 'अंग' इन दो शब्दों के मेल से निर्मित हुआ है। 'स्थान' शब्द के अनेक अर्थ हैं। आचार्य देववाचक' और गुणधर' ने लिखा है कि प्रस्तुत आगम में एक स्थान से लेकर दश स्थान तक जीव, पुद्गल आदि के विविध भाव वर्णित हैं। जिनदासगणि महत्तर का अभिमत है - जिसका स्वरूप स्थापित किया जाए व ज्ञापित किया जाए, वह स्थान है।' इस आगम में एक से लेकर दश तक संख्या वाले पदार्थो का उल्लेख है, अत: इसे स्थान कहा गया है। इसमें संख्या क्रम से जीव, पुद्गल आदि की स्थापना की गयी है। अतः इसका नाम 'स्थान' या 'स्थानांग' है। आचार्य गुणधर स्थानांग का परिचय देते हुए कहते हैं कि स्थानांग में संग्रहनय और व्यवहारनय की दृष्टि से समझाया गया है। संग्रहनय की दृष्टि से एकता का और व्यवहारनय की दृष्टि से भिन्नता का प्रतिपादन किया गया है। संग्रहनय की अपेक्षा जीव चैतन्य गुण है। व्यवहारनय की दृष्टि से प्रत्येक जीव अलग-अलग हैं। इसमें ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से भी जीव तत्त्व का विभाजन किया गया है। पर्याय की दृष्टि से एक तत्त्व अनन्त भागों में विभक्त होता है और द्रव्य की दृष्टि से अनन्त भाग एक तत्त्व में परिणत हो जाते हैं । इस प्रकार स्थानांग में संख्या की दृष्टि से जीव, अजीव प्रभृति द्रव्यों की स्थापना की गयी है। इसमें भेद और अभेद की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु तत्त्व का विवेचन किया गया है। स्थानांग का महत्त्व स्थानांग में एक विषय का दूसरे विषय के साथ किसी तरह का संबंध नहीं है। इसमें इतिहास, गणित, भूगोल, खगोल, दर्शन, आचार, मनोविज्ञान आदि शताधिक विषय संकलित हैं। प्रत्येक विषय का विस्तार से चिन्तन करने की अपेक्षा संख्या के आधार पर विषय का आकलन किया गया है। प्रस्तुत आगम में अनेक ऐतिहासिक सत्य घटनाएँ भी हैं। इसमें कोश की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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