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________________ सूत्रकृतांग में वर्णित दार्शनिक विचार 131 ६१ इह संवुडे मुणी जाये पच्छा होति अपावये। वियडं व जहा भुज्जो नीरयं सरयं तहा।।-सूत्रकृतांगसूत्र १.३.७१ ६२. स मोक्ष प्राप्तोऽपि भूत्वा कीलावणप्पदोसेण रजसा अवतारते। सूयगडं चूर्णि मू.पा. टिप्पण पृ.१२ । ६३.(१) यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत्। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।-गीता ४.१७ (२) वही ४.८ ६४. भगवद्गीता ८.१५-१६ ६५. सूत्रकृतांगसूत्र १.३.७२-७५ . ६६.सूत्रकृतांग १.२.५७-५९ ६७. सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ.१९२-९६ ६८.सूत्रकृतांग १.४.८०-८३ ६९. वही पृ. ९२ ७० आचारांग १ श्रु.९ अ.१ गाथा ५४ (मूलअनुवाद विवेचन टिप्पण युक्त) सं. मधुकर मुनि, अनु. श्रीचन्द सुराणा 'सरस', आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ७१. सूत्रकृतांग-१.३.६०-६३ ७२. उदगस्सऽप्पभावेण सक्कंमि घातमिति उ। ___ढंकेहि व कंकेहि य आमिसत्थेहि ते दुही।।- वही, १.३.६२ ७३.वही-१.४.७६-७९ ७४.सूत्रकृतांग सूत्र-१.४.८४-८५ उरालं जगओ जोयं विपरीयासं पलेति य। सव्वे अक्कतदुक्खा य अतो सव्वे अहिंसिया।। एतं खु णाणिणो सारं जं न हिंसति किंचण। अहिंसा समयं चेव एतावंतं वियाणिया।। ७५.सूत्रकृतांग १२०.८६-८८ ७६. तत्त्वार्थसूत्र ९.३ -पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई.टी.आई. रोड़ करौंदी, वाराणसी- 221005 (उ.प्र.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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