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________________ 134 जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषाङक संकलन है। प्रतिमा साधना की विशिष्ट पद्धति है। इसमें भद्रा, सुभद्रा, महाभद्रा, सर्वतोभद्रा और भद्रोतरा प्रतिमाओं का उल्लेख है। जाति, कुल, कर्म, शिल्प और लिंग के भेद से पांच प्रकार की आजीविका का वर्णन है । गंगा, यमुना, सरयु एरावती और माही नामक महानदियों आदि का उल्लेख है। चौबीस तीर्थकरों में से वासुपूज्यं, मल्ली, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर की कुमारावस्था की प्रव्रज्या का भी उल्लेख है। इसमें रोगोत्पत्ति के नौ कारणों का उल्लेख है, जिनमें शारीरिक और मानसिक रोग प्रमुख हैं। राज्य व्यवस्था के संबंध में जानकारी उपलब्ध होती है । पुरुषादानीय पार्श्व, भगवान महावीर, श्रेणिक आदि के संबंध में भी ऐतिहासिक महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। अतः यह आगम कई विशिष्ट अध्ययनों को प्रस्तुत करता है। इसमें अनेक आश्चर्यजनक घटनाएँ भी हैं, जिनका ज्ञानवाद की चर्चा में उल्लेख किया गया है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान और परोक्ष ज्ञान की व्याख्या को प्रस्तुत करने वाला आगम है, जिससे दार्शनिक चिन्तन के लिए नई दिशा भी मिलती है। स्थानांग की प्राचीनता इसमें भगवान महावीर के निर्वाण की प्रथम से छठी शताब्दी तक की अनेक घटनाएँ उल्लिखित हैं, जो ऐतिहासिक और पौराणिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। १. नवम स्थान में गोदासगण, उत्तरबलिस्सहगण, उद्देहगण, चारण गण, उडुवातितगण, विस्सवातितगण, कामड्ढिगण, माणवगण और कोडितगण इन गणों की उत्पत्ति का उल्लेख है जो कल्पसूत्र में भी है। इन गणों की चार-चार शाखाएँ है। इन गणों के अनेक कुल थे । ये सभी गण श्रमण भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् दो सौ से पांच सौ वर्ष की अवधि तक उत्पन्न हुए थे। २. इसी तरह सातवें स्थान में जमालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त, गोष्ठामाहिल, इन सात निह्नवों का वर्णन है। इन सात निह्नवों में से दो निह्नव भगवान महावीर को केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद हुए। इनका अस्तित्वकाल भगवान महावीर के केवलज्ञान-प्राप्ति के चौदह वर्ष बाद से निर्वाण के पांच सौ चौरासी वर्ष पश्चात् तक का है। अर्थात् वे निर्वाण की प्रथम शताब्दी से लेकर छठी शताब्दी के मध्य में हुए । स्थानांग की यह ऐतिहासिक एवं पौराणिक सामग्री प्राचीनता की द्योतक है। इसके विवेच्य विषय जीव, अजीवादि तत्त्वों का विवेचन तथा दार्शनिक विश्लेषण भी इस बात के प्रमाण हैं कि स्थानांग सभी प्रकार की सामग्री को समाविष्ट किए हुए है। समवायांग, व्याख्या प्रज्ञप्ति आदि आगमों में प्रश्नोत्तर शैली से भेद-प्रभेद आदि का कथन किया गया है। परन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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