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| सूत्रकृतांग का वर्ण्य विषय एवं वैशिष्ट्य ।
__द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सात अध्ययन हैं। जिनके नाम हैं- पौंडरीए (पौण्डरीक), किरिया ठाणे(क्रिया स्थान), आहार परिण्णा (आहार परिज्ञा), पच्चक्खान किरिया(प्रत्याख्यान क्रिया), आयार सूयं (आचार श्रुत), अद्दइज्जं (आर्द्रकीय), णालंदइज्ज(नालंदीय)। इस श्रुत स्कन्ध में गद्य और पद्य दोनों पाये जाते हैं।
इस आगम में गाथा छन्द के अतिरिक्त इन्द्रव्रजा, वैतालिक, अनुष्टुप् आदि अन्य छन्दों का भी प्रयोग मिलता है। वैशिष्ट्य
पंचभूतवाद, ब्रह्मैकवाद-अद्वैतवाद या एकात्मवाद, देहात्मवाद, अज्ञानवाद, अक्रियावाद, नियतिवाद, आत्मकर्तृत्ववाद, सद्वाद, पंचस्कन्धवाद तथा धातुवाद आदि का सूत्रकृतांग के प्रथम स्कन्ध में प्ररूपण किया गया है। तत्पक्षस्थापन और निरसन का एक सांकेतिक क्रम है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में परमतों का खण्डन किया गया है-- विशेषत: वहां जीव एवं शरीर के एकत्व, ईश्वरकर्तृत्व, नियतिवाद आदि की चर्चा है। प्राचीन दार्शनिक मतों, वादों और दृष्टिकोणों के अध्ययन के लिए सूत्रकृतांग का अत्यन्त महत्व है। आगे हम अध्ययन क्रमानुसार वर्ण्य विषय पर संक्षिप्त प्रकाश डाल रहे हैं।
वर्ण्य विषय प्रथम श्रुतस्कन्ध
प्रथम अध्ययन का नाम जैसा ऊपर निर्देश किया गया है समए (समय) है। इस अध्ययन का विषय है- स्वसमय अर्थात् जैनमत और परसमय अर्थात् जैनेतर मतों के कतिपय सिद्धान्तों का प्रतिपादन। इस अध्ययन के चार उद्देशक और अठासी श्लोक हैं। इनमें विभिन्न मतों का प्रतिपादन, खण्डन और स्वमत का मण्डन है। यहाँ परिग्रह को बन्ध और हिंसा को वैरवृत्ति का कारण बताते हुए लिखा है
___ “सवे अकंतदुक्खा य, अओ सब्वे अहिंसिया।।"1/84 __ कोई भी जीव दु:ख नहीं चाहता इसलिए सभी जीव अहिंस्य हैं, हिंसा करने योग्य नहीं हैं।
__ "एयं खु णाणिणो सारं, जंण हिंसइ कंचणं।
अहिंसा समयं चेव, एयावंतं वियाणिया।।" 1/85 अर्थात् ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता। समता अहिंसा है, इतना ही उसे जानना है।
परिग्रह बंधन है, हिंसा बंधन है। बन्धन का हेतु है ममत्व। कर्मबन्ध के मुख्य दो हेतु हैं- आरंभ और परिग्रह। राग, द्वेष, मोह आदि भी कर्मबन्ध के हेतु हैं, किन्तु वे भी आरम्भ परिग्रह के बिना नहीं होते। अत: मुख्यत: इन दो हेतुओं आरम्भ और परिग्रह का ही ग्रहण किया है। इन दोनों में भी परिग्रह
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