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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक गुरुतर कारण है।
इसमें प्राचीन दार्शनिक मतों जैसे भूतवाद, आत्माद्वैतवाद, एकात्मवाद, अकारकवाद, क्रियावाद, नियतिवाद आदि का परिचय देकर इन सबका निरसन किया है।
द्वितीय अध्ययन वैतालीय है। इसमें आध्यात्मिक तथ्यों का प्रतिपादन है। प्रारम्भ में वर्णन किया गया है
संबुज्झह किण्ण बुज्झह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा।
णो हूवणमति राइओ, णो सुलभं पुणरवि जीवियं ।।'' 211 (भगवान ऋषभ ने अपने पुत्रों से कहा) संबोधि को प्राप्त करो। बोधि को क्यों नहीं प्राप्त होते हो। जो वर्तमान में संबोधि को प्राप्त नहीं होता, उसे अगले जन्म में भी वह सुलभ नहीं होती। बीती हुई रातें लौटकर नहीं आती। जीवन सूत्र के टूट जाने पर उसे पुन: साधना सुलभ नहीं है। पारिवारिक मोह से निवृत्ति के संबंध में लिखा है
"दुक्खी मोहे पुणो पुणो, णिविंदेज्ज सिलोगपूयणं ।
एवं सहिएऽहिपासए, आयतुले पाणेहि संजए।। 2/66 अर्थात् दुःखी मनुष्य पुन: पुन: मोह को प्राप्त होता है। तुम श्लाघा और पूजा से विरक्त रहो। इस प्रकार सहिष्णु और संयमी सब जीवों में आत्मतुला को देखें। अपने समान समझे।
परीषह-जय, कषाय-जय आदि का भी सम्यक् निरूपण इस अध्ययन में किया गया है। काम, मोह से निवृत्त होकर आत्मभाव में रमण करने का उपदेश इस अध्ययन में दिया गया है।
तृतीय अध्ययन 'उपसर्ग परिज्ञा' है। उपसर्गों को समता पूर्वक सहने की क्षमता वाला मुनि अपने लक्ष्य को पा लेता है। उपसर्ग का अर्थ हैउपद्रव। स्वीकृत मार्ग पर अविचल रहने तथा निर्जरा के लिए कष्ट सहना परीषह है। अनुकूल उपसर्ग मानसिक विकृति पैदा करते हैं और प्रतिकूल उपसर्ग शरीर विकार के कारण बनते हैं। अनुकूल उपसर्ग सूक्ष्म होते हैं और प्रतिकूल उपसर्ग स्थूल होते हैं। धीर पुरुष बंधन से मुक्त होते हैं यथा
"जेहिं काले परिक्कत ण पच्छा परितप्पए।
ते धीरा बंधणुम्मुक्का, णावकखंति जीवियं ।।" 3/75 अर्थात् जिन्होंने ठीक समय पर पराक्रम किया है वे बाद में परिताप नहीं करते। वे धीर पुरुष (कामासक्ति) के बंध से मुक्त होकर (काम-भोगमय) जीवन की आकांक्षा नहीं करते।
__ अध्ययन के अंत में 'ग्लान सेवा' व उपसर्ग सहन करने पर बल दिया है।
चतुर्थ अध्ययन 'इत्थीपरिण्णा' (स्त्री परिज्ञा) में स्त्री संबंधी परीषहों को सहन करने का उपदेश दिया गया है। मुनि को सभी संसर्ग का वर्जन
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