SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (हिंसा-असहिष्णुता) के द्वारा ही हो सकती है। विचारों की संकीर्णता या असहिष्णुता ईर्ष्या-द्वेष की जननी है। इस असहिष्णुता को हम किसी अन्धकार से कम नहीं समझते। आज हमारे देश में जो अशान्ति है, उसका एक मुख्य कारण यही विचारों की संकीर्णता है। प्राचीन संस्कृत-साहित्य में पाया जानेवाला 'आनृशंस्य' शब्द भी इसी अहिंसावाद का द्योतक है। इसप्रकार के अहिंसावाद की आवश्यकता सारे संसार को है। जैनधर्म के द्वारा इसमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है। उपर्युक्त दृष्टि से जैनदर्शन भारतीय दर्शनों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। अनेकांतवाद शब्द का प्रयोग वैदिक परम्परा के 'विष्णुपुराण' (18/10-11) में भी हुआ है। जैनदर्शन में तो अनेकांत को प्राणतत्त्व ही माना गया है तुहवयणं चिय साहइ Yणमणेगंतवाय वियड यह। तह हिदयपगासयरं सव्वण्णूत्तमप्पणो णाह।। ---(उसहदेवत्थोत्तं, 33) अर्थ :- हे तीर्थकर भगवान् दृषभदेव ! आपके दिव्यध्वनि से प्रसूत वचन निश्चय से अवश्य ही ‘अनेकांतवाद' के विकट पथ को सिद्ध करते हैं, तथा हे वृषभनाथ ! आपश्री का स्वयं का सर्वज्ञत्व भव्य-मानव के हृदयरूपी कमल को प्रकाशित करनेवाले सूर्य के समान है। आचार्य सिद्धसेन ने अनेकांत को इस लोक का अद्वितीय गुरु संभवत: इसी चिंतन के कारण प्रतिपादित किया है कि इसके बिना वस्तुस्वरूप का ज्ञान एवं प्रतिपादन दोनों ही संभव नहीं है। जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वहदि । तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ।। - (आचार्य सिद्धसेन, सन्मतिसूत्र, 3/69) अर्थ :--- जिसके बिना लोक का भी व्यवहार कदापि नहीं हो सकता है. ऐसे उस विश्व के एक अद्वितीय गुरु 'अनेकांतवाद' के लिये नमस्कार है। जैनाचार्यों ने अनेकांत को पारमेश्वरी विद्या' (पारमेश्वरीमनेकान्तवाद विद्यामुपगम्य, प्रवचनसार, पृष्ठ 2) एवं विरोध का नाशक' (विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम्, पुरुषार्थसिद्धियुपाय, 1/2) कहा है। आचार्य सिद्धसेन तो इसे 'मिथ्यादर्शन के समूह का विघातक' भी कहते हैं : भदं मिच्छादसण-समूहमहयस्स अमयसारस्स। जिणवयणस्स भगवओ संविग्ग सुहाहिगम्मस्स ।। -(आचार्य सिद्धसेन, सन्मतिसूत्र, 3/60) अर्थ :---- एकांत मिथ्यादर्शनों के समूह का मथक अमृतसाररूप तथा तत्त्वज्ञ आचार्य मुनिजनों द्वारा सुखपूर्वक जाने गये ऐसे महत्त्वशाली तीर्थकर सन्मति भगवान् के वचन से Jain OLL 9aerma प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक .org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy