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________________ ‘अनेकान्तवाद' का मौलिक अभिप्राय यही हो सकता है कि तत्त्व के विषय में आग्रह न होते हुए भी उसके विषय में तत्तदवस्था भेद के कारण दृष्टिभेद संभव है। इस सिद्धान्त की मौलिकता में किसको सन्देह हो सकता है? क्या हम "श्रुतयो विभिन्ना: स्मृतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य मतं न भिन्नम् ।” - (महाभारत) “यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद स: । अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ।।" – (केनोपनिषत्, 2/3) इत्यादि वचनों को मूल में अनेकान्तवाद का ही प्रतिपादक नहीं कह सकते? दर्शन शब्द ही स्वत: दृष्टिभेद के अर्थ को प्रकट करता है। इस अभिप्राय से जैनाचार्यों ने अनेकान्तवाद के द्वारा दार्शनिक आधार पर विभिन्न दर्शनों में विरोध-भावना को हटाकर परस्पर समन्वय स्थापित करने का एक सत्प्रयत्न किया है। अनेक अवस्थाओं से बद्ध, विभिन्न दृष्टिकोणों से पदार्थों को देखने का अभ्यासी, मनुष्य किसी पदार्थ के अखण्ड सकल-स्वरूप को कैसे जान सकता है? उन अखण्ड मूलस्वरूप को हम सच्चे अर्थ में “गुहाहितं गहरेष्ठं पुराणम्" कह सकते हैं। “पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामतं दिवि" (यजुर्वेद, पुरुषसूक्त) -- इस वैदिकश्रुति का भी वास्तविक तात्पर्य यही है। इसमें सन्देह नहीं कि जैनदर्शन में प्रतिपादित अनेकान्तवाद के इस मौलिक अभिप्राय को समझने से दार्शनिक जगत् में परस्पर विरोध तथा कलह की भावनाओं के नाश से परस्पर सौमनस्य और शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो सकता है। ___ जैनधर्म की भारतीय संस्कृति को बड़ी भारी देन अहिंसावाद है। जो कि वास्तव में दार्शनिक-भित्ति पर स्थापित अनेकान्तवाद का ही नैतिकशास्त्र की दृष्टि से अनुवाद कहा जा सकता है। धार्मिक दृष्टि से यदि अहिंसावाद को ही जैनधर्म में सर्वप्रथम स्थान देना आवश्यक हो, तो हम अनेकान्तवाद को ही उसका दार्शनिक दृष्टि से अनुवाद कह सकते हैं। 'अहिंसा' शब्द का अर्थ भी मानवीय सभ्यता के उत्कर्षानुत्कर्ष की दृष्टि से भिन्न-भिन्न किया जा सकता है। एक साधारण मनुष्य के स्थूल विचारों की दृष्टि से हिंसा किसी की जान लेने में ही हो सकती है। किसी के भावों को आघात पहुँचाने को वह हिंसा नहीं कहेगा; परन्तु एक सभ्य मनुष्य तो विरुद्ध विचारों की असहिष्णुता को भी हिंसा ही कहेगा। उनका सिद्धान्त तो यही होता है कि..... “अभ्यावहति कल्याणं विविधं वाक् सुभाषिता । सैव दुर्भाषिता राजन् अनायोपपद्यते ।। वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति यैराहत: शोचति रात्र्यहानि । परस्य नामर्मसु ते पतन्ति तान् पण्डितो नावसृजेत् परेभ्यः ।।" -(विदुरनीति. 2/77. 80) सभ्य-जगत् का आदर्श विचार-स्वातन्त्र्य है। इस आदर्श की रक्षा अहिंसावाद Jain Eप्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) * महावीर-चन्दना-विशेषांक - 93.
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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