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________________ इसीलिए शंकराचार्य ने लिखा है कि--- "महाद्भुताऽनिर्वचनीयरूपा।" – (विवेकचूडामणि 111) अर्थ :--- तत्त्व महान्, अद्भुत और अनिर्वचनीय है। वस्तुतत्त्व के इस विशिष्टरूप को वस्तुस्वभाव के अनुसार ही समझा जा सकता है, 'तर्क' के व्यायाम द्वारा नहीं। आचार्य समंतभद्र लिखते हैं “स्वभावोऽतर्कगोचरः।" – (आप्तमीमांसा. 100) जहाँ वेदान्तदर्शन सम्पूर्ण जगत् को अद्वैतब्रह्ममय कहता है; वहीं सांख्य, वैशेषिक आदि अन्य वैदिक-दर्शन-जगत् को भेदाभेद एवं एकानेकरूप प्रतिपादित करते हैं। यदि ब्रह्म-अद्वैत है, तो जीव की सत्ता है या नहीं? – इसका उत्तर देते हुए गीताकार लिखते हैं..... “ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातनः।" ... (गीता. 15/7) अर्थात् इस जीवलोक में समस्त जीवराशि मुझ ब्रह्म या ईश्वर का ही सनातन अंश है। इसी बात को संत तुलसीदास (रामचरितमानस, बालकाण्ड) लिखते हैं ___ “ईश्वर-अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुखराशी।" यह अंश-अंशी का स्वतंत्र सनातन अस्तित्व 'द्वैतवाद' का पोषक है। 'वेद' भी इस तथ्य का समर्थन करते हैं... “एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति ।” ... (ऋग्वेद, 16) अर्थात् उस एक सत् को ही विद्वज्जन अनेक प्रकार से कहते हैं। जैनों की ‘स्याद्वाद' शैली के द्वारा वस्तु के अनेकान्तात्मक की स्वीकृति की पुष्टि शंकराचार्य ने भी की है... “अपरे वेदबाह्या दिगम्बरा एकस्मिन्नेव पदार्थे भावाभावौ मन्यते ।" - (ब्रह्मसूत्र, विज्ञानामृतभाष्य. 2/2/33) अर्थात् अन्य जो वेदबाह्य दिगम्बर लोग हैं, वे एक ही पदार्थ में भाव (अस्ति) और अभाव (नास्ति) धर्मो को युगपत् मानते हैं। ऐसा नहीं है कि अनेकांत की अवधारणा जैनेतरों में नितांत अस्वीकृत रही है। वैदिक वाङ्मय ने भी अनेकांत के तत्त्व मिलते हैं, भले ही उन्होंने अनेकांत के सिद्धांत को स्वीकार न किया हो। असति सत् प्रतिष्ठितं, सति भूतं प्रतिष्ठितम् । -- (अथर्ववेद, 17/1/19) अर्थात् 'असत्' में ही 'सत्' प्रतिष्ठित है, 'सत्' में भी 'असत्' प्रतिष्ठित है। ‘अनेकान्तवाद' यह एक सिद्धान्त ही नहीं, अपितु एक विशिष्ट चिन्तशैली का भी परिचायक है. जो पर-विचार-सहिष्णुता का मंत्र प्रदान करता है। एकान्तवादी चिन्तन को प्रकारान्तर से वैचारिक हिंसा' भी विद्वानों ने माना है। ‘अनेकान्तवाद' के इस पक्ष पर प्रख्यात मनीषी डॉ० मंगलदेव शास्त्री के विचार मननीय हैं 92 प्राकतो Jain Education internatforral 1-जन'2001 (संयक्तांक) + Private personal use only ना-विशेषांक www.jainelibrary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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