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वस्तु को ही इष्ट है, उसमें ही निहित है; तो उस पर आक्षेप या आपत्ति खड़ी करने का किसी भी व्यक्ति को क्या अधिकार है? आचार्य समन्तभद्र इसी बात को इन शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं- “यदीदं स्वयसमर्थेभ्यो रोचते, तत्र के वयम् ।”
तथा किसी भी पसन्द या नापसन्द के आधार पर वस्तु का स्वभाव तो बदलने से रहा; अत: हमें अपनी दृष्टि बदलनी होगी तथा वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता या अनेकान्तात्मकता को वाचित स्वीकृति देनी होगी। तब हमारे पास ‘स्याद्वाद' की कथनशैली अपनाने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय ही नहीं बचेगा। यहाँ तक कि जिन दर्शनों एवं दार्शनिकों ने स्याद्वाद' की कथन-पद्धति एवं अनेकान्तात्मक' वस्तुस्वरूप की स्वीकृति नहीं भी की है; उन्हें भी प्रकारान्तर से इन दोनों को मानना पड़ा है। कतिपय निदर्शन द्रष्टव्य हैं
"नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सत:। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।।"
-(गीता, 2/96; योगवाशिष्ठ, 3/7/38) भाष्य– “एवमात्मनात्मनो: सदसतो: उभयो: अपि दृष्ट उपलब्धोऽन्त: निर्णय: सत् सदेवासदेवेति त्वनयो यथोक्तयो: तत्त्वदर्शिभिः।"
___ अर्थ :-- इसप्रकार सत्' आत्मा और 'असत्' अनात्मा — इन दोनों का ही यह निर्णय तत्त्वदर्शियों द्वारा देखा गया है, अर्थात् प्रत्यक्ष किया जा चुका है कि 'सत्' सत् ही है और 'असत्' असत् ही है।
लगभग इसी तथ्य को परमपूज्य आचार्य कुन्दकुन्द इन शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं :- “भावस्स णत्यि णासो, णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो।
एवं सदो विणासो, असदो जीवस्स पत्थि उप्पादो।।" अर्थ :- 'सत्' रूप पदार्थ का नाश नहीं हो सकता है तथा 'असत्' का उत्पाद नहीं हो सकता है। पदार्थ अपने गुण-पर्यायों व उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप रहते हैं।
एक अन्य निदर्शन देखें- "नैकस्मिन्नसम्भवात्" – (आo बादरायण, ब्रह्मसूत्र'. 2/2/23)
शांकरभाष्य- “न चैषां पदार्थानामवक्तव्यत्वं सम्भवति। अवक्तव्याश्चेन्नोचयेरन्। उच्यन्ते चावक्तव्याश्चेति विप्रतिषिद्धम् ।”
अर्थ :- ये पदार्थ सर्वथा अवक्तव्य हैं —ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि यदि वे सर्वथा अवक्तव्य हों, तो उच्चरित नहीं हो सकते। यदि उच्चारण में भी आते हैं और अवक्तव्य भी हैं ....ऐसा तो विप्रतिषिद्ध (तुल्यबलविरोध) है।
उपनिषद्कार इस विषय में लिखते हैं _“व्यक्ताव्यक्तम्।" -- (श्वेताश्वतरोपनिषद्. 1/8)
अर्थात् वस्तु व्यक्त' और 'अव्यक्त-दोनों रूप है। जैसेकि मेंहदी में हरा रंग व्यक्त है तथा लाल रंग अव्यक्त है।
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक 01 91
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