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पदार्थ उसका नहीं है।” आत्मा का ज्ञानदर्शन का व्यापार या प्रवृत्ति 'उपयोग' कहलाता है। भाव-अनुष्ठान की दृष्टि से उपयोग तीन प्रकार का है- शुभ, अशुभ और शुद्ध । जीव जब शुभ या अशुभ भाव से परिणमता है, तब शुभ या अशुभ रूप होता है और जब शुद्धभाव से परिणमित होता है, तब शुद्ध होता है। शुद्धभाव से उपयोग शुद्ध होता है। शुद्धोपयोग से निष्पन्न सिद्धों को अतिशय, आत्मीक, विषयातीत, अनुपम, अनंत, अविच्छिन्न सुख मिलता है।" धर्मपरिणत आत्मा के शुद्धोपयोग से निर्वाण, शुभोपयोग से स्वर्गादिक-सुख
और अशुभोपयोग से कुमानुष, तिर्यंच और नरकगति का अनंत दुःखरूप संसार-भ्रमण होता है। शुद्धोपयोग आत्मा की स्वाबलम्बी ज्ञान-परिणति है; जबकि शुभ-अशुभ-उपयोग पर-द्रव्याश्रित अज्ञान-परिणति है। अत: जिन्हें संसार-मुक्त होना है, उन्हें स्वावलम्बी शुद्धोपयोगी परिणति को समझना और जीवन में प्रयुक्त करना आवश्यक है। स्व-समय-प्रवृत्ति का आधार 'भेद-विज्ञान' ___ जीव अनादिकाल से अज्ञानवश शुभ-अशुभरूप पर-समय की प्रवृत्ति दिन-रात करता है, जो अंनत दु:ख का कारण है। इसकी निवृत्ति एवं शुद्धोपयोगरूप प्रवृत्ति का आधार 'स्व' और 'पर' को पृथक्-पृथक् जानने रूप भेद-विज्ञान है। इससे स्वभाव-विभाव, आत्मा-अनात्मा का ज्ञान होता है? इसी को रेखांकित करते हुए कहा है कि 'जब तक जीव आत्मा और आस्रव (शुभाशुभ रूप भाव) का विशेष नहीं जानता, तब तक वह अज्ञानी विषयों में प्रवृत्त रहता है। तथा जो बंध के स्वभाव और आत्मा के स्वभाव को जानकर, बंध के प्रति विरक्त होता है, वह कर्मों से मुक्त होता है। जो भेद-विज्ञान द्वारा सर्व परिग्रहों से रहित अपने आत्मा का आत्मा द्वारा ध्यान करता है, वह अल्पकाल में ही समस्त दु:खों से छुटकारा पा लेता है। इसप्रकार जो गहरे संसार-समुद्र से निकलना चाहता है, वह शुद्धात्मा का ध्यान करता है। भेद-विज्ञान से मोहग्रंथी का क्षय और सुख-दु:ख में समत्वभाव आता है।" कर्मक्षय हेतु आत्म-ध्यान का सिद्धान्त ___ ध्यानरूपी अग्नि बहुत भारी कर्मरूपी ईंधन को क्षणमात्र में जला देती है। रागादि परिग्रह से रहित मुनि शुक्लध्यान द्वारा अनेक भवों के संचित कर्मों को शीघ्र जला देता है। ध्यान निर्जरा का कारण है। अत: रत्नत्रयादि गुणों से युक्त अविनश्वर, अखंडप्रदेशी शुद्ध इन्द्रियातीत निजात्मा का ध्यान करना चाहिये।" ध्यान में राग और पुण्यभाव के दुष्परिणाम
जिसके देहादिक में अल्पराग भी है, वह समस्त शास्त्रों का ज्ञाता होकर भी अपने समय (आत्मा) को नहीं जानता। परमार्थ से बाहर मोक्ष का हेतु न जाननेवाले अज्ञानी पुरुष पुण्य की इच्छा करते हैं। पुण्य से वैभव-मद-मतिमोह और पाप होता है; अत: पुण्य छोड़ना चाहिये । जो पुण्य और पाप में भेद मानता है, वह मोही अपार संसार का भ्रमण
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00 80 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only
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