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________________ भगवान् महावीर का दर्शन और आत्मविज्ञान के सिद्धान्त 'तिलोयपण्णत्ति' के नवमें महाधिकार की 82 गाथाओं में सिद्ध-लोक- प्रज्ञप्ति का वर्णन है। इसमें भगवान् महावीर के दर्शन के अनुसार सिद्धों का निवास, सिद्धों का सुख एवं सिद्धत्व-साधना के सिद्धान्तों / सूत्रों का दिशाबोधक वर्णन है, जो मननीय हैं। आधुनिक संदर्भ में भगवान् महावीर का दर्शन 'आत्म-विज्ञान' का सर्वोदयी दर्शन कहा जाता है 1 स्वतंत्रता का स्व- समय का सिद्धान्त महावीर का सर्वोदयी दर्शन प्रत्येक प्राणी को परमात्मा होने का मार्ग बताता है । स्वभाव से प्रत्येक जीव शुद्ध है, सिद्ध समान है । अज्ञान के कारण वर्तमान अवस्था विकारी है, अशुद्ध है । अशुद्धता विकार से मुक्ति पाने का सूत्र है स्व- समय के सिद्धान्त का ज्ञान। 'समय' शब्द का प्रयोग काल, पदार्थ और जीवात्मा के रूप में किया है, जो एकत्व रूप से एकसमय में जानता और परिणमन करता है । आत्मा अपने ज्ञानदर्शन स्वभाव का श्रद्धान, ज्ञान कर उसी में स्थित लीन रहे, यही उसका सौन्दर्य और सिद्धत्व है । इसे ही स्व-समय शुद्धात्मा समयसार कहा है । इसके विपरीत मिथ्यात्व, राग-द्वेष रूप पर्याय में परिणमित होना पर-समय या बहिरात्मा है, जो दुःखरूप है । 'तिलोयपण्णत्ती' में आत्मा के स्व-समय (स्व-चारित्र) का सिद्धान्त बताते हुए कहा है कि जो (अन्तरंग - बहिरंग ) सर्वसंग से रहित ओर अनन्यमन ( एकाग्रचित्त) होता हुआ अपने चैतन्य-स्वभाव से को जानता और देखता है, वह जीव स्व- चारित्ररूप स्व-समय है 1 ज्ञान, दर्शन और चारित्र की भावना करना चाहिये, यह तीनों आत्मस्वरूप हैं; अत: आत्मा की भावना करो । स्व- समय में प्रवृत्ति शुद्धनय से होती है । 34 35 शुद्रनय से स्व- समय की सिद्धि : अशुद्नय से पर- समय की पुष्टि 36 37 सिद्ध-स्वरूप शुद्धात्मा की प्राप्ति शुद्धनय (दृष्टि ) से होती है। इसकी पुष्टि करते हुए कहा है— 'न मैं पर-पदार्थों का हूँ और न पर - पदार्थ मेरे हैं, मैं तो अकेला (केवल) ज्ञान ही हूँ; इसप्रकार जो ध्यान में चिंतन करता है, वह आठ कर्मों से मुक्त होता है। 'मैं दूसरों का नहीं हूँ, पर मेरे नहीं हैं, इसप्रकार लोक में मेरा कुछ भी नहीं है, ऐसी जो भावना भाता है, उसका कल्याण होता है। इसप्रकार शुद्धनय से स्व- समय की सिद्धि होती है। ठीक इसके विपरीत जो जीव देह में 'अहम्' (अहंबुद्धि) और धनादिक में ममेदं (यह मेरा ) इसप्रकार के ममत्व को नहीं छोड़ता, वह अज्ञानी दुष्टकर्मों से बंधता है। इस दृष्टि से अशुद्धनय से पर- समय रूप प्रवृत्ति होती है । अतः साधक को शुद्धनय उपादेय है । 38 स्वावलम्बन का शुद्रोपयोग का सिद्धान्त आत्मा सदा से एक शुद्ध दर्शन - ज्ञानात्मक और अरूपी है; परमाणुमात्र भी अन्य प्राकृतविद्या जनवरी- जून 2001 (संयुक्तांक) महावीर - चन्दना - विशेषांक 079 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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