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चिन्तन और ज्ञान की आगार वह बाला विचारने लगी— “निशि-दिवा-सी घूमती सर्वत्र विपदा सम्पदा ।” ममत्व के इस नीड़ में अब मुझे प्रश्रय नहीं मिलेगा। मोह की निशा अब विघटित हो गई, अतएव नवीन प्रकाश के इस अनन्त नभ में अब स्वतन्त्र विचरण कर सकूँगी। अब सम्पूर्ण विश्व ही मेरा परिवार होगा। संसार श्रृंखला की कड़ियाँ तडातड़ टूटने लगी। इन्द्रियों के बंधन अब खुलने लगे, स्पर्श-रस-गन्ध-स्वर के द्वार उद्घाटित होने लगे और ज्ञान-ज्योति भीतर ही भीतर प्रज्ज्वलित होने लगी।
भगवान् महावीर के चरण ही उसने सच्ची शरण माने और देखते ही देखते वह सदा-सदा के लिये भौतिक श्रृंगारहीना होकर आत्मिक श्रृंगार से सज्जित हो गई। धवल शाटिका में वह चन्द्रिका (चन्दना) अपने हृदय का कोना-कोना आलोकित करने लगी। अब भीतर बाहर किसी तलघर में अंधेरा नहीं था। ज्ञानदीप की लौ बुझाने में प्रत्यनशील सभी शक्तियाँ बुझ चुकी थी, मार्ग के शूल फूल बन गये।
चन्दना को अब पूर्णाभास हो गया कि जैनधर्म ही सत्य और कल्याणकारी है। अब विधिवत् जैनधर्म में दीक्षित हो जाना ही मेरे लिये मंगलप्रद होगा। वीतरागी, हितोपदेशी
और सर्वज्ञदेव ही शरण हो सकते हैं। उनकी वाणी ही संसाररूपी मरुभूमि में विविध तापों से संतप्त जीवों को शांति दे सकती है। अतएव चन्दना ने दीक्षान्वय क्रियापूर्वक तत्काल आर्यिका-दीक्षा ग्रहण की। चन्दना के चरित्र में पर्याप्त सहृदयता, सहिष्णुता और करुणा की त्रिवेणी के साथ आदर्श के कगारों का समन्वय भी है। सौम्य व गम्भीर नारी के इस शब्दकोश में ऐसे शब्दों का अतलस्पर्शी सागर लहराता है, जो प्रत्येक भावभिव्यंजना को साथ मर्मस्थल को छूने की क्षमता रखते हैं।
इसमें सन्देह नहीं कि चन्दना के चरित्र में दिक्-छटा है, कौंधती ज्योति-रेखाओं का समवाय है। यह वह दिव्य नारी है, जिसके गौरव की किताब खुली पड़ी है। आगम के अक्षर-अक्षर में एक बार फिर चन्दना की करुण गाथा के खण्डहरों की बरसाती आंखों में डाल आँख रो लेती है। यह वह दीपशिखा है, जो इस पानी से दीप्त हो उठती है। चन्दना का कल्पना चित्र एक टूटी आह पर झूलने लगता है और कहानी का अंचल सज जाता है आंसू के फूलों से, करुणा की वल्लरी से।
निरोगी कौन? निशान्ते यो पिबेत वारि, दिनान्ते यो पिबेत् पयः।
भोजनान्ते पिबेत् तक्रं, वैद्यस्य किं प्रयोजनम् ।। अर्थ :--- प्रात:काल जो पानी पीता है, सायंकाल जो दूध पीता है और भोजन के बाद जो तक्र (छांछ-मट्ठा) पीता है, उसे वैद्य से क्या काम? अर्थात् वह बीमार नहीं पड़ता और उसे वैद्य के पास नहीं जाना पड़ता है।
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प्राकृतविद्या-जनवरी-जून 2001 (संयुक्तांक) +महावीर-चन्दना-विशेषांक 00 45 Jain Education International For private & Personal Use Only
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