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भगवान् महावीर और उनका जीवन दर्शन
__-डॉ० ए०एन० उपाध्ये
'बंगलौर की जैनमिशन सोसाइटी' और 'इन्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ कल्चर' के संयुक्त तत्त्वावधान में 23 अप्रैल 1956 को डॉ० ए०एन० उपाध्ये का 'महावीर जयन्ती' के शुभ अवसर पर अंग्रेजी में भाषण हुआ था, जिसे इन्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ कल्चर ने जुलाई 1956 में प्रकाशित कर प्रसारित कराया था। ___ श्री कुन्दनलाल जैन ने इस लेख का जून 1962 में अनुवाद कर उसे तत्कालीन प्रतिष्ठित पत्रिका 'अनेकान्त', वर्ष 15 की तृतीय किरण में प्रकाशित करा दिया। आज 40 वर्ष बाद भी इस लेख की महत्ता एवं उपयोगिता तदनुरूप ही है, तथा इसकी ताजगी में कोई अन्तर नहीं आया है; अत: जिज्ञासु पाठकों की जिज्ञासा-शान्त्यर्थ पुन: ‘प्राकृतविद्या' में प्रकाशनार्थ प्रस्तुत है।
भगवान् महावीर की 2600वीं जन्म-जयन्ती के पावन अवसर पर इस लेख की उपादेयता और अधिक बढ़ गई है।
-सम्पादक
भारत के कुछ विशिष्ट पुरुषों में अध्यात्म एवं ज्ञान की पिपासा अनादिकाल से ही प्रचलित रही है। उस समय भी जब कि जनसाधारण अज्ञानता, गरीबी एवं अपने पूर्वजों की अन्धश्रद्धा तथा पूजा में ही लगा रहता था। धार्मिक नेताओं का महत्त्व अपने भक्तों के विश्वास विजय में ही निहित था। भारत में धार्मिक नेता दो प्रकार के रहे हैं....एक पण्डों व पुरोहितों के रूप में उपदेशक, तथा दूसरे परोपकारी एवं आत्मशोधी के रूप में मुनिगण। उपदेशक शास्त्रोक्त-पद्धति के महारथी होते थे। वे कहा करते थे कि “विश्व एवं देवताओं तक का अस्तित्व और उद्धार उनके द्वारा प्रवर्तित बलिदान के मार्ग से ही सम्भव है", इनके सम्प्रदाय बहुदेववादी थे। देवता लोग प्राय: प्राकृतिक शक्ति के केन्द्र थे और मानव-समाज उनकी असीम कृपा पर निर्भर था। पुरोहित लोग देवताओं को बलि चढ़ा-चढ़ा कर ही मानवों की सुरक्षा का आडम्बर रचा करते थे। यह वैदिक विचारधारा थी, जो भारत में उत्तर-पश्चिम से आई और अपने अद्भुत प्रभाव से यत्र-तत्र अनेकों अनुयायी बनाती हुई भारत के पूर्व और दक्षिण में फैल गई।
इसके विपरीत भारत के पूर्व में गंगा-यमुना के कछारों में कुछ आत्मशोधी साधु हुये,
40 28. प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक .org
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