SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की हितसाधना के अमोघ - मन्त्र हैं । संवर, निर्जरा ऐसे प्रकरण हैं, जो संचित कर्ममलों को निकाल बाहर फेंकते हैं, नये कर्मों का आगमन रोकते हैं और इसप्रकार मनुष्य को आत्मिक योगमार्ग का निर्देश करते हैं, जिस पर चलकर वह आत्मसिद्धि प्राप्त कर लेता है। ‘संसार असार है' इसी विषय को 'द्वादश अनुप्रेक्षा' से समझाते हुए अनेक दृष्टियों से निर्भ्रान्त सिद्ध कर दिया है कि आपात - रमणीय-प्रतीयमान दैहिक-भोग क्षय होने वाले हैं और इनके हितसाधन में आत्महित विस्मरण करना अपने ही सर्वनाश को आमन्त्रण देना है । जहाँ अनेक धर्म कोरे ज्ञान को ही महत्त्व देते हैं तथा उसी से मुक्ति - प्राप्ति का निरूपण करते हैं; वहाँ श्रमण - संस्कृति में सम्यग्ज्ञानानुपूर्वी सम्यक्चारित्र को उपयोगिता का अन्तिम चरण मानते हैं। यह स्थापना इतनी क्रान्तिकर है कि प्रतिवाद के अशेष अस्त्र कुण्ठित हो जाते हैं। श्रद्धा के बिना कोरे ज्ञान को 'ज्ञानं पंगु क्रिया चान्धा' कहकर उपेक्षणीय, असमर्थ, अनुपयोगी बताया है । कषायों को नि:शेष करना, विषयों को निर्मूल करना श्रेय: साधना के लिए अपरिहार्य है; क्योंकि इनसे आर्त- रौद्र ध्यान बने रहते हैं, तथा नि:संगत्व की प्राप्ति नहीं होती । सर्व सावद्यविरत होने वाले को अन्तर्बाह्य परिग्रह मात्र हेय है और दिगम्बरत्व ही वह उपाय है, जिसमें कर्मक्षय करने की सातिशय क्षमता है । सर्वोदय धर्म इसी उच्च भूमिका का समादर करता है । मानव ज्ञानवान् होकर सर्वसंन्यास का व्रत ग्रहण करे तथा आवागमन से सदा के लिये छूट जाए, दिगम्बरत्व का यही अभिप्राय है। मोक्ष-सिद्धि के लिए स्वीकार किया जाने वाला व्रत (निर्ग्रन्थ मुनिचर्या) यदि अष्टविंश मूलगुणों से रहित करके भी देखे, तो इतना कठिन है कि पालन करना अशक्य प्रतीत होता है । उस पर मूलगुणों सहित का मुनिधर्म - पालन करते हैं, यह तो अत्यन्त असहनीय है। सारे तप दिगम्बरत्व में समा जाते हैं और नि:शंक यह कहा जा सकता है कि उनके लिए मोक्षमार्ग खुला है। आत्मोपलब्धि के लिए महातपा दिगम्बर मुनि कौन - सा उत्सर्ग नहीं करते हैं? संसार के यावत् पदार्थों का निःसंगत्व क्या सामान्य बात है? जब लोग नित्य सुख-सुविधा के साधनों का आविर्भाव करने में लगे हैं, तब सब ओर से मनोवृत्तियों को हटाकर सर्वसंयम ले लेना 'अतिदुस्तर पन्थाः ' । यह वेष चारित्र - सहित तीर्थंकरों ने अपनाया और आज तक उनके अनुगामी अपनाते आये हैं । यह अकिञ्चनता की पराकाष्ठा है यह । इससे अधिक आकिञ्चन्य क्या हो सकता है ? जैसे बीज मिट्टी में मिल जाए, वैसे अपने अहंकार को निःशेष विगलित करने वाले महाव्रती सर्वोदय-तीर्थ की देन ही हो सकते हैं विश्व-समाज में भगवान् के सर्वोदय - तीर्थरूपी मंगल को प्रचारित करने के लिए श्रावक, तपस्वी और विद्वान् अपने धर्मश्रम को उपयोग कर आधि-व्याधि-ग्रस्त संसार तक परित्राण के स्वर पहुँचायें तथा समभावी हों; तभी आचार्यप्रोक्त 'तवैव' ( सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ) पद आशीर्वादक होगा । I प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2001 (संयुक्तांक) महावीर - चन्दना - विशेषांक 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy