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अप्रतिहत रखना हितावह है । आगम, स्वाध्याय और चारित्रमार्गी मुनि - महेश्वरों से प्रेरणा लेकर श्रेयोमार्ग पर आगे बढ़ते रहने की अदम्य इच्छा कदाचित् कालप्रभाव को भी मृदु होने के लिए बाध्य कर देती है । मात्र काल को दोषभागी बनाकर बच निकलने का ब्याज करना भी पुरुषार्थ- पराङ्मुखता है। 'ज्ञानार्णव' में आचार्य शुभचन्द्र का वचन है कि“तवारोढुं प्रवृत्तस्य मुक्तेर्भवनमुन्नतम् ।
सोपानराजिकाऽमीषां पादच्छाया भविष्यति ।। 5 / 18 ।।
मुनि - परमेष्ठियों की चरणकान्ति का अनुसरण करते हुए भव्य मुक्ति-मन्दिर तक जा सकेंगे — इसमें क्या सन्देह है ? विशुद्ध बोध - पीयूष का पान करनेवाले करुणासिन्धु महाव्रती जहाँ पदविन्यास करते हैं, वहाँ धन्य-क्षणों का आविर्भाव ज्ञान से लोक को सम्पन्न करना, सर्वोदय तीर्थ का विस्तार करना है। लोक अज्ञान से, असंस्कार से किसी पक्ष-विशेष के प्रति दुराग्रह रखने से, हठवाद से यथार्थ ज्ञान को स्वीकार करना नहीं चाहता। उसे युक्ति, आगम, तर्क तथा सौहार्दभाव से मिथ्यात्व से हटाकर सम्यक्त्व में प्रतिष्ठित कराना धार्मिकों का कर्तव्य है । 'सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव' कहने वाले के हृदय में यह दृढ़ता विद्यमान है कि वह श्रमण - धर्म को सार्वजनीन, विश्वहितावह मानता है। इस 'सर्वोदय' के दावे को सिद्ध करने के लिए निम्न तथ्य प्रस्तुत हैं
आठ मदों को दूर करें
श्रमण- - संस्कृति ने आठ मदों में जाति, कुल, बल, ऋद्धि आदि को लेते हुए परम्परा-प्राप्त श्रेष्ठत्व को निरस्त किया है और साथ ही वस्तु स्वरूप के यथार्थ ज्ञान को महत्त्व देते हुए सम्यग्ज्ञाता और सम्यग्द्रष्टा को धर्मज्ञान का अधिकारी माना है । आत्मा से व्यतिरिक्त सभी पदार्थ परवस्तु हैं और परवस्तु में आसक्ति मोह है । संसार में आसक्ति ही
युद्ध, वैर, कलह, विषय- मूढ़ता इत्यादि को जन्म देती है और मानव का पतन कराती है । आसक्ति से मनुष्य अकार्य में प्रवृत्त होता है, परवस्तु के मोह में आत्मविस्मृत हो जाता है। तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि से प्रसूत आगम इन दुरन्त मोहच्छेद के लिए तीक्ष्ण कुठार हैं । 'व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से ऊँचा उठता है; अन्य द्वारा विहित कर्म अन्य के लिए सहायक नहीं होता, अत: स्वयंप्रवृत्ति ही पुरुषार्थ - सिद्धिप्रद है।' इस ज्ञान से व्यक्ति कर्तृत्व और भोक्तृत्व में भ्रान्तिमान् नहीं रहता, तथा शुभाशुभ - कर्मबन्धजन्य परिणामों के अवश्य भोक्तृत्व को जान लेता है। जानने के उपरान्त वह शुभकर्ममात्र का बन्ध रख सकता है 1 अथवा सर्वकर्मारम्भ-संन्यासव्रत लेकर कर्म - परिणमन का सर्वथा क्षय करने की ओर प्रवृत्त हो सकता है । आत्मा ही परमात्मा है और वह बन्धन से मुक्त होने पर संसार - परिभ्रमण से मुक्त होकर अपने स्वरूप में ही समाहित हो जाती है। इस तत्त्वज्ञान से मानव परमात्म- स्थिति प्राप्त करने के लिए उत्साहित होता है, उसे आत्मा के सर्वोच्च स्वरूप का, स्व से स्व के लिए ज्ञान हो जाता है । दशलक्षण तथा पाँच अणुव्रत मानवमात्र
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