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________________ बिगड़ गया है, वह अपने घर में शुद्धिपूर्वक बनायी हुई चौके की मिठाई पसन्द नहीं करता। वैसे ही धर्म-रहस्यों से अनभिज्ञ व्यक्ति अधार्मिकता को लुब्धक की निगाह से रच-रचकर स्वीकार करता है। मानो, छिलका और गुठली खाता है, रस को थूकता है। आश्चर्य होता है इस तम:परम्परा पर और इन असम्यक्-संविदाओं पर धिक्कार भेजने को जी चाहता है। बहुत वर्षों पूर्व भारत के राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था-- "हम कौन थे, क्या हो गये और क्या होंगे अभी? आओ, विचारें आज मिलकर ये समस्यायें सभी ।।" वास्तव में स्थिति इतनी विषम हो चुकी है कि जिन आर्यवंशजों (भारतीयों) को देखकर देवत्व की कल्पना साकार हो उठती थी, आज उनके शरीर से, बुद्धि से, मन से मानवता के स्वाभाविक स्तर का भान भी नहीं होता। एक अतिरंजित भौतिक लालसाओं के लिए दर्दमनीय वासना रखने वाले यांत्रिक संस्करण से प्रतीयमान मनुष्य नामधारी जीवों से भववीथियाँ संकुल हो रही हैं। सब एक-दूसरे को धकेलकर, कुचलकर आगे बढ़ जाने को आतुर हैं। किसी की किसी के साथ संवेदना नहीं, मानवत्व नहीं। मशीनों के युग में श्वास लेनेवाला मानव स्वयं मशीन हो गया है, और इस मशीन को ही सर्वस्व मान बैठा है। धर्मप्राणता हमारी संस्कृति का मूल-मंत्र प्राचीन भारत के धर्मप्राण-जीवन से तुलना करने पर तत्कालीन जीवन से आज आकाश-पाताल जितनी दूरी दिखायी देती है। जन-जीवन शून्य होता जा रहा है। जिससे अपवित्रता का परिहार और पवित्रता का आधान किया जाता है, जो दयारूप जल से सिक्त है, इच्छितों का प्रसविता है, उस धर्म-कल्पवृक्ष की स्थापना अपने-अपने हृदयों में करना लोग भूलते जा रहे हैं। यदि प्रत्येक मानव के मानस-नेत्रों के समक्ष धार्मिकता का ‘स्मरण-पत्र' नहीं रखा गया, तो संसार निकट भविष्य में रहने योग्य नहीं रह जाएगा। आने वाली सन्तानें अपने पूर्वजों पर गर्व कर सकें और धर्म को समादर की दृष्टि से देख पायें, इसके लिए तप करने का समय वर्तमान है। मोह, अविद्या-अन्धकार में भटकते हुए जनों को 'सर्वोदय-तीर्थ' का अनुजीवी ही अपने समत्व से उपकृत कर सकता है। यह कथंचित् सत्य है कि कालदोष से मानवों की धार्मिकता में हास आया है, सम्यक्त्व की ओर प्रवृत्ति न्यून हुई है, मानव अपने सर्वाभ्युदय-साधक मित्र से वञ्चित हो गया है; तथापि मोक्ष-प्राप्ति के लिए परम-पुरुषार्थ का निरूपण करनेवाला, सम्यक्चारित्र को प्रमुखता देने वाला सर्वोदयी धर्म अपने तप और पुरुषार्थ को न छोड़ते हुए धार्मिक पराक्रम तो कर सकता है। दैवाधीन अथवा कालाधीन होकर अपने आत्मबल को अकिंचन नहीं करना चाहिए। सदैव उदग्र पुरुषार्थ और आत्मप्रदेशों में निरवद्य विचरने के संकल्पों को प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक 00 25 For Prnoate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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