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________________ जो उच्च राजघरानों से सम्बन्धित थे तथा उच्च चिन्तन एवं धार्मिक क्रांति के इच्छुक थे। उनकी दृष्टि में प्राणीमात्र धार्मिक चिन्तन का केन्द्र है, साथ ही अचेतन-जगत् से उसके सम्बन्ध टूटने का एक साधन भी है। इससे वे साधु-लोग जीवन की इहलौकिक और पारलौकिक समस्याओं पर सोचने के लिए बाध्य हुए; क्योंकि उनके समक्ष आत्मा (चेतन) और कर्म (जड पदार्थ) दोनों ही यथार्थ थे। इहलौकिक अथवा पारलौकिक जीवन आत्मा और कर्म के पारस्परिक अनादि-निधन सम्बन्धों का परिणाम ही तो है और यही सांसारिक दुखों का कारण भी है; पर धर्म का मूल उद्देश्य कर्म को आत्मा से पृथक् करना है, जिससे आत्मा पूर्ण मुक्त हो शुद्ध ज्ञानात्मक चिदानन्द चैतन्य का आनन्द-अनुभव कर सके। मनुष्य अपना स्वामी स्वयं ही है। उसके मन, वचन और काय उसे अपने ही रूप में परिणमन करते हैं तथा कराते रहते हैं। इसप्रकार मनुष्य अपने भूत-भविष्य का निर्माता व विघटनकर्ता स्वयं ही है। धार्मिक पथ पर अग्रसर होने के लिए वह अपने पूर्ववर्ती आचार्यों को अपना आदर्श मानता है और जब तक आध्यात्मिक उन्नति की चरम-सीमा एवं परिपूर्णता (कृतकृत्यता) नहीं प्राप्त कर लेता, तब तक मुनि-मार्ग का अवलम्बन कर कर्म-संघर्ष में रह बना रहता है। इसप्रकार हम स्पष्टरूप से देखते हैं कि प्राच्य धार्मिक विचारधारा में ईश्वर-कर्तृत्व एवं उसके प्रचारक पुरोहितों का कोई स्थान न था। यह युग तो जैन तीर्थंकर नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर, आजीवक सम्प्रदाय के गोशाल, सांख्यदर्शन के कपिलऋषि एवं बौद्धधर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध के प्रतिनिधित्व का काल था। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् हमारे देश में विशेषतया शिक्षित वर्ग में भारतीय प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर को नवीनरूप में ढालने के प्रति विशेष जागरुकता दिखाई दे रही है। बड़े हर्ष की बात है कि इस प्रसंग में महावीर और बुद्ध को बड़ी श्रद्धा एवं भक्ति से स्मरण किया जाता है और उनके महत्त्व को आंका जाने लगा है। पर आश्चर्य तो यह है कि ऐसे महापुरुषों को, जिन्होंने अपनी शिक्षाओं एवं उपदेशों द्वारा इस देश को नैतिकता एवं मानवता के क्षेत्र में इतना अधिक महान् और समृद्ध बनाया, अपनी ही भूमि में उन्हें कुछ समय के लिए भुला दिया गया। दूसरी सबसे अधिक खटकने वाली बात यह है कि महावीर और बुद्ध का महत्त्व एवं उनके साहित्य का जो मूल्यांकन हम लोग सदियों पूर्व स्वयं अच्छी तरह कर सकते थे, वह सब अब पश्चिमी विद्वानों द्वारा हुआ और हम प्रसुप्त दशा में पड़े रहे। जैन और बौद्ध-साहित्य के क्षेत्र में पश्चिमी विद्वानों की बहुमूल्य सेवाओं ने हमारी आँखें खोल दी हैं और आज हम इस स्थिति में हो सके हैं कि अपनी विभूतियों को पहचान सकें। __24वें तीर्थंकर भगवान् महावीर, महात्मा बुद्ध के समकालीन थे; उनके विचार एवं सिद्धांत-संस्कृति के अनुकूल थे। भगवान् महावीर एवं उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकरों ने जो भी प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक 00 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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