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________________ चक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र की दूरदृष्टि एवं पावन सन्निधि आध्यात्मिक कारण के रूप में थे. वहीं परमप्रतापी चामुण्डराय की अगाध समर्पण-वृत्ति तथा दूरदर्शितापूर्ण प्रशासनिक शैली भी इसे मूर्तरूप प्रदान करने में प्रमुख भूमिका रखती है। ऐसे महामानव चामुण्डराय के जीवन एवं दर्शन को उत्तरभारत के हिन्दीभाषी जनों के लिये संक्षिप्त, किन्तु रोचक रूप में प्रस्तुत करके विद्वान् लेखक, अनुवादक एवं प्रकाशन संस्थान ने अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। अत: वे सभी वर्धापनीय हैं। . साथ ही यह कृति भी भट्टारक कर्मयोगी श्री चारुकीर्ति स्वामी जी के कृपा-कटाक्ष से निर्मित. सम्पादित एवं प्रकाशित हो सकी है, अत: उनके प्रति भी विनम्र कृतज्ञता का भाव सहज ही उत्पन्न हो जाता है। ‘चन्द्रगिरि चिक्कबेटक महोत्सव' के शुभ आयोजन के निमित्त ही इस कृति का भी निर्माण और प्रकाशन हुआ है। ऐसे गरिमापूर्ण एवं सर्वाग सुन्दर प्रकाशन के लिये प्रकाशक-संस्थान भी हार्दिक बधाई का पात्र है। –सम्पादक ** पुस्तक का नाम : शौरसेनी प्राकृतभाषा एवं उसके साहित्य का संक्षिप्त इतिहास लेखक : प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन प्रकाशक : कुन्दकुन्द भारती न्यास, नई दिल्ली-110067 संस्करण :: प्रथम, 2001 ई०, (डिमाई साईज़, पेपर बैक, लगभग 204 पृष्ठ) ___भारतीय वाङ्मय के गौरवपूर्ण साहित्य में शौरसेनी प्राकृतभाषा का साहित्य अन्यतम है। नाट्य-साहित्य से लेकर दार्शनिक एवं आगम-साहित्य तक इसका व्यापक प्रयोग हुआ है। इसके अतिरिक्त अनेकविध लोक-साहित्य भी इसी भाषा में लिखा गया है। इस भाषा की उत्तराधिकारिणी महाराष्ट्री प्राकृत, शौरसेनी अपभ्रंश एवं हिन्दी भाषा का साहित्य भी कई दृष्टियों से शौरसेनी प्राकृत के साहित्य से उपजीवित है; अत: शौरसेनी प्राकत के साहित्य की व्यापकता एवं महनीयता विद्वज्जगत् में स्वत: प्रमाणित है। शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध जैन धार्मिक साहित्य का भाषिक एवं साहित्यिक दृष्टि से परिचयात्मक मूल्यांकन इस शोधपरक कृति में विद्वान् लेखक ने अत्यंत श्रमपूर्वक प्रस्तुत किया है। तथा प्रकाशक-संस्थान ने भी उसी के अनुरूप गरिमापूर्वक इसका प्रकाशन करके इसकी महत्ता को बढ़ाया है। अत: विद्वान् लेखक एवं प्रकाशक संस्थान ---दोनों ही अभिनंदनीय हैं। ___ शौरसेनी प्राकृत के धार्मिक-साहित्य के बहुदृष्टीय अध्ययन की दृष्टि से जिज्ञासु छात्रों. शोधकर्ताओं, विद्वानों एवं सामाजिक व्यक्तियों सभी के लिये यह कृति बहुत उपयोगी सिद्ध होगी, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। इसकी प्रतियाँ प्रत्येक पुस्तकालय तथा विद्वानों के निजी संग्रह में अवश्य होनी चाहिये। -सम्पादक ** Jain E प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) • महावीर-चन्दना-विशेषांक 11 127,ore
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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