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________________ जाता है, इनके द्वारा रचित 'भरतेश वैभव' नामक काव्य सम्पूर्ण कन्नड़ साहित्य का कृति-स्तंभ कहा जाता है । कविवर रत्नाकर वर्णी का जीवन एवं कृतित्व हिन्दी के पाठकों को रोचक कथानक की शैली में प्रस्तुत करने का यह प्रयास अत्यंत श्लाघनीय माना जाना चाहिये, क्योंकि प्राय: ऐसा होता है कि उत्तर भारत के लोगों को दक्षिण भारत के साहित्य एवं साहित्यकारों के बारे में सामान्य जानकारी भी नहीं होती है, तो उनकी व्यवस्थित जानकारी होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसका प्रमुख कारण हिन्दी भाषा के माध्यम से उनके जीवन एवं साहित्य की रोचक प्रस्तुति नहीं होना ही है । 'खारवेल-पुरस्कार' से सम्मानित यशस्वी विद्वान् प्रो० जी० ब्रह्मप्पा कन्नड़ भाषा एवं साहित्य के सिद्धहस्त लेखक हैं। उनके द्वारा श्री एम० वी० श्रीनिवास के सहयोगपूर्वक मूल कन्नड़ में एक औपन्यासिक कृति का निर्माण हुआ, जिसका समर्थ अनुवादक डॉ० दक्षिणामूर्ति ने हिन्दी भाषा के प्रवाह, प्रबंधन एवं शैली के अनुरूप इसका अनुवाद प्रस्तुत कर दक्षिण भारत के यशस्वी जैन विद्वान् के जीवन और साहित्य को सुरुचिपूर्ण ढंग से सम्पूर्ण देश के जिज्ञासुओं के लिये एक अनुपम कार्य किया है । अतः ये सभी विद्वान् अभिनंदनीय हैं। साथ ही भट्टारक कर्मयोगी श्री चारुकीर्ति स्वामी जी के प्रति भी विनम्र कृतज्ञता का भाव सहज ही उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि उन्हीं के कृपा-कटाक्ष से इस कृति का निर्माण, अनुवाद एवं प्रकाशन का महनीय कार्य गरिमापूर्वक सम्पन्न हो सका है। 'चन्द्रगिरि चिक्कबेटक महोत्सव' के शुभ आयोजन के निमित्त ऐसी कृतियों के निर्माण और प्रकाशन का शुभ संकल्प लिया जाना एक अनुकरणीय दिशाबोध है, जो आज के आडम्बर-प्रधान आयोजनों के आयोजकों को विचार करने एवं अनुकरण करने योग्य है। ऐसे गरिमापूर्ण एवं सर्वाग सुन्दर प्रकाशन के लिये प्रकाशक - संस्थान भी हार्दिक बधाई का पात्र है । -सम्पादक ** पुस्तक का नाम - लेखक मूल हिन्दी अनुवाद प्रकाशक संस्करण मूल्य (4) : चामुण्डराय वैभव जीवंधरकुमार होतपेटे प्रो० धरणेन्द्र कुरकुरी Jain Education International : एस०डी० जे०एम०आई० मैनेजिंग कमेटी, श्रवणबेलगोल (कर्नाटक) : प्रथम, 2001 ई० : 24/- (डिमाई साईज़, पेपर बैक, लगभग 80 पृष्ठ ) उत्तर भारत के जैनसमाज को दक्षिण भारत तक चुम्बकीय आकर्षण प्रदान करने में श्रवणबेल्गोल की इन्द्रगिरि पहाड़ी पर शोभायमान परमपूज्य गोम्मटेश्वर बाहुबलि स्वामी का निर्माण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। इसके साथ ही साहित्य के संरक्षण एवं नवनिर्माण के लिये अनुकूल वातावरण और परिस्थितियों का बनना भी एक व्यापक धरातल प्रदान करता है । इन दोनों ही कार्यों के मूल जहाँ परमपूज्य सिद्धान्त 126 प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2001 (संयुक्तांक) महावीर - चन्दना - विशेषांक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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