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________________ अभिमत ® प्राकृतविद्या का अक्तूबर-दिसम्बर 2000 का अंक प्राप्त हुआ। हमेशा की तरह इस अंक का संपादकीय तथा प०पू० आचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज का आलेख अत्यंत विद्वत्तापूर्ण लगे। अन्य आलेख भी श्रेष्ठ हैं। पत्रिका अतिशय ज्ञानवृद्धि तथा जैनदर्शन के मर्म को प्रकट करनेवाली है। प्रत्येक आलेख चिंतन-मनन के बिन्दु प्रदान करता है। आपका प्रयास पूर्णत: सराहनीय है। सम्पादक मंडल को हार्दिक बधाई। -लाल चन्द जैन ‘राकेश', विदिशा (म०प्र०) ** ® 'प्राकृतविद्या' का अक्तूबर-दिसम्बर 2000 का अंक प्राप्त हुआ, तदर्थ धन्यवाद । अंक पठनीय सामग्री से भरपूर है, अंक आकार और साज-सज्जा भी अंक को स्पहणीय बनाती है। प्राकृतविद्या के द्वारा जैन धर्म, दर्शन के क्षेत्र में होने वाले कार्य के लिये हार्दिक बधाई। ___-प्रो० बलिराम शुक्ल, पुणे (महा०) ** ® 'प्राकृतविद्या' का अक्तूबर-दिसम्बर 2000 ई० का अंक प्राप्त हुआ—आभार । अंक की सम्पादकीय में उठाये गये 'गोरक्षा और गोवध' संबंधी विचार गहन अध्ययन का परिणाम है। जिस कुशलता से विषय का विश्लेषण किया गया वह प्रशंसनीय है। भारतीय दर्शन एवं जैनदर्शन दिगम्बर-परम्परा के मनीषी और वर्तमान स्थिति आलेख संक्षिप्त होते हुये भी सारगर्भित है। प्राकृतभाषा तथा अपभ्रंश भाषा सम्बन्धी लेख एक अपनी पृथक् पहचान रखते हैं, जो पठनीय होकर चिन्तन करने योग्य है। ‘पज्जुण्णचरिउ' ग्रंथ का मूल्यांकन बड़ी सूझबूझ और नवीनता लिये है। ___शौरसेनी प्राकृत-संबंधी श्रीमती मंजूषा सेठी. डॉ० माया जी के आलेख गंभीरता से विषय को सोचने और समझने को बाध्य करते हैं। 'पुस्तक समीक्षायें' भी पुस्तक देखने की ललक जगाती है। अंक की अन्य सामग्री भी पठनीय होकर ज्ञानवर्द्धक है। सही पूछिये तो प्राकृतविद्या के सभी अंक संग्रहणीय होते हैं – इनके पीठे सम्पादक की दूरदर्शिता, कुशलता व बुद्धिमत्ता ही कही जायेगी। ऐसे सुन्दर अंक-हेतु बधाई स्वीकार कीजिये। —मदन मोहन वर्मा, ग्वालियर (म०प्र०) ** • आपके कुशल, सक्षम एवं प्रभावी संपादकत्व में एवं पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के मार्गदर्शन में प्रकाशित ‘प्राकृतविद्या' को प्रगति के सर्वोच्च शिखर पर देखकर 00 128 प्राकृतविद्या+जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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