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________________ साथ बालसुलभ ढंग से खेला और फिर अदृश्य हो गया। मित्रों ने भी त्रिशलाकुँवर को 'वीर' कहते हुए कंधे पर बैठा लिया। त्रिशलाकुँवर की अपूर्व शक्ति :- वर्धमान सभी के चिन्तक थे। एक बार नगर में उन्मत्त हाथी का आतंक फैल जाता है, भगदड़ मच जाती है। राजपुरुष पकड़ने में समर्थ नहीं हो पाते। जन-धन की हानि सिद्धार्थ के सामने हो रही थी। त्रिशलाकुँवर वर्धमान के कानों में चीखने-चिल्लाने के स्वर गूंज उठे। माँ ने रोका और पिता ने हाथ पकड़ा, पर इस साहसी बालक ने अपने राजप्रासाद से राजपथ की ओर कदम बढ़ा लिये। हाथी का विकराल रूप था, कँवर ने फुर्ती से मुष्टि-प्रहार किया, जिससे हाथी का मद चूर-चूर हो गया। कँवर राजहाथी की तरह उस पर बैठ गया। सिद्धार्थ के सामने यह दृश्य था। और त्रिशला के रुदन के बीच ममता की अपूर्व छवि थी। कुँवर के साहस ने सबको चकित कर दिया। वे वीर तो थे ही, अब कुमार-अवस्था में ही 'अतिवीर' भी बन गये। वीर से महावीर :----- शक्तिपुञ्ज, परप्रतिष्ठित बालक वर्धमान अनंत दर्शन, अनंतज्ञान. अनंतसुख और अनंतबल के चतुष्टय को छूने के लिए अभिनिष्क्रमण कर जाते हैं। वे साधक बनते हैं और जनता के बीच में रहकर जनचेतना को जगाते हैं। वीर से महावीर बनने के लिए ध्यान को सर्वोपरि करते हैं। वे धर्मध्यान और शुक्लध्यान के उच्चशिखर पर आरूढ़ हो जाते हैं। दिव्यज्ञान के आलोक ने उन्हें केवलज्ञानी बना दिया। उनके समवसरण में पशु भी थे. पक्षी भी और मानवमात्र के समस्त जनसमुदाय भी थे। जनता थी, क्षत्रिय थे, वैश्य थे, ब्राह्मण और शूद्र भी थे। लिच्छवी के राजाओं में णायपुत्त के विचार क्रान्तिकारी थे। उनकी दृष्टि में प्राणीमात्र के प्रति समताभाव था। “सव्वेसिं जीवियं पियं” महावीर की दृष्टि का यह सूत्र यही सन्देश देता है कि सभी एक समान हैं। सभी को अपना जीवन प्रिय है. सभी जीना चाहते हैं। इसलिए महावीर कहते हैं कि भयाकल प्राणियों के लिए सर्वप्रथम समत्व की दृष्टि दिखलाना चाहिए। समत्व में सम्पूर्ण जगत् के प्रति प्रेमभाव ही होता है। समतानुप्रेक्षी किसी का प्रिय और अप्रिय नहीं करता है। वह तो वैर-विरोध से रहित प्राणीमात्र के लिए मैत्री का सन्देश देता है। अहिंसा की दृष्टि :... त्रिशलाकँवर ने यह सन्देश दिया कि शत्रु और मित्र इस जगत् में कोई नहीं है। यदि अपना हित चाहते हैं, तो सर्वप्रथम अपनी शत्रुता और अपनी मित्रता को देखें. फिर जीने का अधिकार सभी को दें। क्योंकि 'सव्वे जीवावि इच्छंति' अर्थात् सनी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता है। ___ 'सच्चं ख भगवं' :- महावीर की दृष्टि विश्व में यथार्थ का आभास कराना चाहती है। इसलिये वे कहते हैं कि जहाँ सत्य है, वहाँ भगवान् है। यह तभी संभव है, जब स्वार्थ से रहित होकर परमार्थ की दृष्टि रखेंगे। ब्रह्म-दृष्टि :- देव, मनुष्य, यक्ष, राक्षस आदि सभी ब्रह्म के सामने झुके रहते हैं; Jain E प्राकृतविद्या + जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक CIMd15s.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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