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________________ उसका नाम वर्धमान रखा। वर्धमान के गर्भ में आते ही सम्पूर्ण वैशाली गणतंत्र सुखद वातावरण से युक्त हो गया था। निरन्तर रत्नदृष्टि ने इस बात की सूचना दे दी थी कि यह बालक साधारण कुमार नहीं है, अपितु समस्त गुणों का प्रकाशित करनेवाला सर्वत्र वृद्धि करनेवाला एवं जन-जन को सुख-शान्ति का साम्राज्य देनेवाला होगा। त्रिशला-कुँवर का जन्म :- छब्बीस सौ वर्ष पूर्व वह त्रिशलाकुँवर चैत्रमास की त्रयोदशी के दिन शुक्ल पक्ष में अपनी शुभ्र प्रभा को बिखेरने में समर्थ हुआ। त्रिशलाकुँवर के जन्म लेते ही मंगलकारी प्रतीक सामने आये। वनसम्पदायें हरित हो गई, जलराशि ने अपना कल-कल स्वर जनता के कानों में भर दिया; त्रिशलाकुँवर वर्धमान बढ़ते गये। चलना सीख लिया, मति, श्रुत और अवधि —ये तीन ज्ञान उस महामना में विद्यमान थे। यह महामना तीर्थंकर नामकर्म की पुण्य-प्रकृति से कुण्डग्राम की शोभा बढ़ा रहा था। इनके कई साथी थे, छोटे-छोटे कुंवर सभी थे, परन्तु कुमार वर्धमान, कुमार चलधर, कुमार कामधर और कुमार पक्षधर ये चारों कुमार बालसखा थे। त्रिशला का सन्मति :- कुमार वर्धमान अपने मित्रों के साथ सभी कलाओं को प्राप्त कर रहा था, वह ज्ञान के शिखर पर आरूढ़ तो नहीं था; पर अभी-अभी कुछ ही कदम आगे बढ़ाये थे, वह लघु ही था। परन्तु इस त्रिशलाकुंवर की लघुता में गंभीरता थी। सोचने की शक्ति दिव्य थी, इसलिए दो दिव्य ऋद्धिधारी मुनि ज्ञान के पिपासु बनकर कुमार की ओर अग्रसर होते हैं। त्रिशलाकुंवर मित्रों के बीच मोदयुक्त ज्ञान की अपूर्व छवि को लेकर स्थित रहता था। संजयंत और विजयंत ने दर्शन का लाभ किया, जो जिज्ञासायें उमड़ रहीं थीं, वे क्षण में शांत हुई। श्रद्धा उत्पन्न हुई, ज्ञान-ज्योति जगी और चारित्र ने चमत्कार प्रदान किया। वे वर्धमान सन्मति' कहलाये, क्योंकि ज्ञान की पिपासा से परिपूर्ण मुनियों के ज्ञान का सम्मान हुआ। त्रिशलाकुँवर की निर्भीकता :- उपवन मे कुमार क्रीड़ा कर रहे थे। अन्य कुमार भी उनके साथ इधर-उधर खेल रहे थे। कुमारों के बीच एक नागकुमार भी क्रीड़ा करने लगा। वह अपूर्व दिव्य एवं अत्यंत आकर्षित था। उसने कुँवर वर्धमान के निर्भीकता का प्रमाण देना चाहा। जहाँ कुँवर क्रीड़ा कर रहे थे, वहीं नागकुमार ने विषधर का रूप बनाया, इधर-उधर पेड़ों पर चढ़े आराम में स्थित झूलों पर झूलते हुए कुमार सर्प को देखते हैं, भयभीत होते हैं और यह चिल्लाने लगते हैं “कुँवर हटो-हटो, दूर भागो सर्प तेजी से तुम्हारी ओर ही बढ़ा आ रहा है।" अन्य कुँवर को सचेत करते हुए इधर-उधर भाग गये। त्रिशलाकुँवर की दृष्टि सर्प पर थी। सर्प की दृष्टि भी कुँवर पर थी। जिह्वा (जीभ) चल रही थी। सिर हिल रहा था और पुन: डोलता हुआ कुछ अभिव्यक्त कर रहा था। कँवर ने शांतभाव से उसे पकड़ा और सरलता से बगीचे के एक ओर कर दिया। नागकुमार ने अपना दिव्य रूप प्रकट किया। वह अजमुख बनकर उन चारों कुमारों के Jain 010114ma प्राकृतविद्या-जनवरी-जून 2001 (संयुक्तांक) “महावीर-चन्दना-विशेषांक).org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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