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________________ वस्तुत: पापरूपी घने अंधकार में अहिंसा ही नैतिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास के लिए अहिंसा ही एकमात्र प्रकाश की किरण है। इसीकारण अहिंसा सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति का मूलमन्त्र बन गयी है। वैदिक परम्परा के ग्रंथों में भी लिखा है“हे भगवन् ! मुझे अहिंसक मित्र का समागम मिले ।” — (ऋग्वेद. 5/64/3) “अहिंसक व्यक्ति इस पृथ्वीतल में मूर्धास्थानीय (सर्वश्रेष्ठ) हैं।" -(ऋग्वेद, सायणभाष्य, 8/67/13) “अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम् ।” – (मनुस्मृति. 2/159) अर्थ :- प्राणियों पर अनुशासन भी अहिंसक रीति से किया जाना ही श्रेयस्कर है। महर्षि पतंजलि मानते हैं कि अहिंसा जब तक जीवन में प्रतिष्ठित नहीं होगी, तब तक वैरभाव जीवन से दूर नहीं किया जा सकता है। "अहिंसा-प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग: ।" – (पातंजल योगसूत्र. 2/35) अर्थ :-- अहिंसा की प्रतिष्ठा होने पर ही उसकी सन्निधि में वैर का त्याग संभव जैनाचार्यों ने तो प्राणीमात्र का स्वभाव ही अहिंसा बताया है ___ “अत्ता चेव अहिंसा।" --(जयधवला. भाग ), पृष्ठ 94) अर्थ :---- इसका स्पष्टीकरण करते हुए मनीषीगण लिखते हैं कि जैसे क्रूर प्राणी भी अपनी संतान की हिंसा नहीं करते हैं, तथा कसाई भी अपने परिवार और बच्चों को नहीं मारता है। इससे स्पष्ट है कि अहिंसा प्राणीमात्र में विद्यमान है। चूँकि निराशा, अभाव और हीनभावना से व्यक्ति में हिंसक प्रवृत्ति का जन्म होता है, अत: प्राणीमात्र के प्रति आत्मीयता, सौहार्द एवं शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व की प्रक्रिया अपनाने से ही अहिंसा का सार्वत्रिक प्रसार संभव है। इस अहिंसक भावना से समन्वित विवेक के उत्पन्न होने वाला उत्साह ही गौरवपूर्ण सफलता का एकमात्र मूलमन्त्र हैं; अत: आज यह आवश्यक है कि समाज में केवल रथोत्सवों का ही नहीं अहिंसा आदि के व्रतोत्सवों का भी आयोजन होना चाहिए; सभी को उल्लासपूर्वक इन्हें मनाना और अपना चाहिए तथा इसके साथ-साथ सभी को अहिंसक-समाजसेवा का व्रत भी लेना चाहिए। हिंसक व्यक्ति का जीवन बिना स्टेयरिंग एवं ब्रेक की गाड़ी के समान अनियन्त्रित होता है, जबकि अहिंसक व्यक्ति का अपने आप पर पूर्ण नियंत्रण होता है; इसी से उसके जीवन में स्व-पर-अहितकारी कोई दुर्घटता नहीं होती है। लौकिक एवं पारमार्थिक जीवन जीन की कला हमें अहिंसा ही सिखाती है। हमारी जीवनयात्रा भी अहिंसा से ही प्रारम्भ होती है। अहिंसा ही सिंहनी जैसी करसत्त्वा माँ के हृदय में सन्तान के प्रति ममता का भाव भरकर उसके मातृत्व को चरितार्थ करती थी। अहिंसा के बिना जीवन की कल्पना भी अशक्य है। 00 108 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) *महावीर-चन्दना-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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