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________________ इसीलिये भारतीय जीवनदर्शन का मेरुदण्ड अहिंसाधर्म' को माना गया है। जैनदार्शनिकों के अनुसार अहिंसा एक विराट वटवृक्ष हैं और उसकी जड़ सम्यग्दर्शन है। इसीलिये “दसणमूलो धम्मो” का मंगलसूत्र आचार्य कुन्दकुन्द ने दिया है। अहिंसा की भावना से जीवन में समताभाव जागृत होता है, जो कि धर्मात्माओं के जीवन में आनन्द की क्रीडास्थल बन जाता है। क्षमता एवं वैराग्य की भावना से अहिंसाधर्म जीवन में सुदृढता को प्राप्त करता है। आचार्य अमृतचन्द्र सूरि इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखते हैं“कमलमिव निरुपलेपत्वप्रसिद्धरहिंसक एव स्यात् ।” ----(प्रवचनसार टीका. गाथा 18) अर्थ :- अहिंसक व्यक्ति ही इस संसार में रहकर भी जल में कमल की भाँति निर्लिप्त रह सकता है। इस अहिंसाधर्म का बिना किसी भेदभाव या पूर्वाग्रह की भावना से प्राणीमात्र में प्रचार-प्रसार करने के लिए -जैन-परम्परा में कतिपय नित्यप्रयोग किये जाते हैं। ऐसे में कुछ इसप्रकार हैं “क्षेमं सर्वप्रजानां, प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल: । काले काले च वृष्टिं वितरतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् ।। दुर्भिक्षं चौर-मारी क्षणमपि जगतां मास्म भूज्जीवलोके । जैनेन्द्रं धर्मचक्र प्रभवत् सततं सर्व-सौख्य-प्रदायी।।" अर्थ :-- सम्पूर्ण प्रजाजनों का कल्याण हो, राजा धार्मिक एवं समर्थ बने, उचित समय पर पर्याप्त परिमाण में वर्षा हो तथा व्याधियों का नाश हो। दुर्भिक्ष (अकाल), चोरी, महामारी आदि की दुर्घट नायें क्षणभर को भी इस जीवलोक में नहीं हों तथा प्राणीमात्र को सुख प्रदान करनेवाला जिनेन्द्र भगवान् का धर्मचक्र निरन्तर प्रवर्तित होते रहे। इसीप्रकार यह भावना भी मननीय है-- “सम्पूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्र-सामान्यतपोधनानाम् । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञ: करोत शान्तिं भगवान् जिनेन्द्रः ।।" अर्थ :---- पूजा करनेवालों के लिये, प्रतिपालन करनेवालों के लिए, यतीन्द्रों (आचार्यो) के लिए, सामान्य तपस्वियों के लिए. देश के लिए. राष्ट्र के लिए, नगर के लिए इन सबके लिये हे भगवन् जिनेन्द्र ! आप शान्ति प्रदान करें। ____ आज ऐसी उदात्त भावनायें मात्र पूजन-पाठ का अंग बनकर रह गयीं हैं। वास्तव में हमारे आचार-विचार में इनका स्थान अन्वेषणीय होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में अहिंसा की चर्चा ऊँट के मुँह में जीरे के समान नगण्य सिद्ध होती जा रही है; जबकि वर्तमान परिस्थितियों में अहिंसा की आवश्यकता और उपयोगिता पहिले की अपेक्षा कहीं ज्यादा है। आज जब पारस्परिक सौहार्द एवं जीवदया स्वरूप स्थूल अहिंसा का प्रसार क्षेत्र Jain Edप्राकृतविद्या + जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) * महावीर-चन्दना-विशेषांक ..109.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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