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वीतरागी. सर्वज्ञ बनने के बाद महावीर 30 वर्ष तक मुक्ति अर्थात् परमसुख का मार्ग जगत् के जीवों को बताते रहे। अपनी दिव्य-देशना की त्रिरत्नों (रत्नत्रय) की त्रिवेणी में जन-जन को आप्लावित किया। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' समस्त जीवों में आत्मवत् दृष्टि रखनेवाले महावीर ने निरपेक्षभाव से समस्त लोक को अपनाया। उनके साम्यभाव में आर्य-अनार्य, साधु-साध्वी, देव-देवांगनायें, स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी सब समानरूप से शरण पाते थे। सभी जीव परस्पर प्रेमानुभाव करते और समान आत्मा का अनुभव करते।
इसी मध्य गौतम के अनुज वायुभूति, जो महावीर के गणधरों में एक थे, को मुक्ति मिली। इस घटना ने गौतम के मन को उद्वेलित कर दिया। उन्होंने महावीर से प्रश्न किया – “मुझमें और क्या कमी है, जो मेरी मुक्ति में बाधक है?" महावीर का उत्तर था-- “तुम्हारे अंतर्मन में मेरे व्यक्तित्व के प्रति अतिसूक्ष्म राग विद्यमान है, राग तो आग है; जिसमें जगत् के जीव अनादिकाल से झुलस रहे हैं। राग का अंश तो बुरा है। जब तक राग की आग नहीं बुझती, तब तक वीतरागता कैसे प्रकट हो और मुक्ति कैसे मिले?" गौतम को उत्तर मिल गया, किन्तु उनका अन्तर्मन शान्त नहीं हुआ। उनके मन में मुक्त होने का तीव्र भाव जो विद्यमान था। महावीर ने कहा- “गौतम ! व्यग्रता से काम नहीं चलता । प्रारब्ध को तो भोगना ही होगा।" गौतम ने सुना कि महावीर के निर्वाण के बाद, जब उनकी पार्थिव देह विलुप्त हो जायेगी, गौतम के अंतर्मन के राग के तन्तु टूटेंगे और हुआ भी यही कि अमावस्या को प्रात: महावीर को निर्वाण हुआ, तो सायं गौतम को कैवल्य की प्राप्ति हुई। ____ आचार में अहिंसा, विचारों में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद और समाज में अपरिग्रह — इन्हीं चार मणिस्तम्भों पर महावीर का जीवनदर्शनरूपी सर्वोदयी प्रासाद अवस्थित है। भगवान् महावीर ने अहिंसा, स्याद्वाद, कर्मवाद, साम्यवाद (अपरिग्रह) की जिस पावनधारा में तुमुल वेग प्रवाहित किया, उसमें निमज्जित होकर मानव युग-युग तक स्थायी शान्ति और अमरत्व को प्राप्त करता रहा है। अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह महावीर के जीवन-दर्शन की मुख्य रीढ़ है। आज हमारे परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व में मानव-मन में जो तनाव, हिंसा, कलह, संघर्ष का ताण्डव नृत्य हो रहा है; वह भगवान् महावीर के जीवन-दर्शन को समझने और तदनुसार आचरण से समाप्त हो सकता है। इसीलिये आचार्य समन्तभद्र ने महावीर के जीवन-दर्शन को समस्त प्रकार की आपदाओं का शमन करनेवाला सर्वोदय तीर्थ कहा है
“सर्वापदामन्तकरं समस्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।” ___ महावीर के अनुसार किसी के प्राणों का वियोग करना ही हिंसा नहीं, अपितु मन दु:खाना भी हिंसा है। संकल्पी हिंसा कभी वैध नहीं हो सकती है। जो अपने प्रतिकूल हो, उसे दूसरे के लिये भी न करो। द्रव्य और भावहिंसा से तीव्र कषायें पैदा होती हैं। महावीर
Jain प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) * महावीर-चन्दना-विशेषांक
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